महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलन और इनकी प्रमुख विशेषताएं
आदिवासी विद्रोहों की विशेषताएं
महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलन एक दूसरे से समय एवं काल में अलग होने के बावजूद आदिवासी विद्रोहों में कुछ समान विशेषताएं थी।
- आदिवासी पहचान या जातीय समानता इन समूहों की एकता के पीछे थी। सभी ‘बाहरी लोगों” को शत्रु के तौर पर नहीं देखा गया। निर्धन लोग जो वैयक्तिक श्रम पर निर्भर थे और गांव में सामाजिक/आर्थिक रूप से सहयोगात्मक भूमिका में थे, अकेसे पड़ गए। इस आंदोलन ने महाजनों एवं व्यापारियों के प्रति हिंसा की, जिन्हें औपनिवेशिक सरकार के विस्तार के तौर पर देखते थे।
- विदेशी सरकार द्वारा आरोपित नियमों, जिन्हें वे आदिवासियों के परम्परागत सामाजिक-आर्थिक रूपरेखा/ताने-बाने को नष्ट करने के प्रयास के रूप में देखते थे, के खिलाफ रोष विद्रोह का एक सामान्य कारण था।
- अधिकतर विद्रोहों का नेतृत्व मसीहा जैसे व्यक्तियो ने किया, जिन्होंने अपने लोगों को विद्रोह करने को प्रोत्साहित किया और “बाहरी लोगों” द्वारा उन्हें दिए गए दुःखों का अंत करने का वचन दिया।
- आदिवासी आंदोलन शुरुआत से ही अभिशप्त थे, क्योंकि उनके पास अपने शत्रु से युद्ध के लिए परम्परागत हथियार थे। जबकि अंग्रेजों के पास आधुनिक तकनीक पर आधारित हथियार थे।
महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलन
महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलन पर यहां विचार किया गया है। गौरतलब है कि अधिकतर आदिवासी आंदोलन, यदि हम सीमांत आदिवासी क्षेत्रों को छोड़ दे, मध्य भारत, पश्चिमी-मध्य क्षेत्र और दक्षिण में केन्द्रीत थे।
पहाड़िया विद्रोह
पहाड़िया, राजमहल की पहाड़ियों में बसी एक लड़ाकू जनजाति थी, जिसने अपने क्षेत्र का अतिक्रमण किये जाने के विरोध में 1778 में सशस्त्र विद्रोह प्रारंभ कर दिया। स्थानीय जनजातीय सरदारों ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। यह विद्रोह अत्यंत हिंसक एवं खूनी था। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को निर्दयतापूर्वक कुचल दिया।
धुआर विद्रोह: अकाल, वर्द्धित भू-राजस्व मांग और दयनीय आर्थिक स्थिति ने मिदनापुर जिले की चुआर जनजाति को हथियार उठाने के लिए प्रोत्साहित किया। ये आदिवासी लोग मूलतः किसान एवं आखेटक थे। यह विद्रोह 1766-1772 तक चला और 1795 और 1816 के बीच पुनः उठ खड़ा हुआ। चुआर मानभूम और बारभूम में सक्रिय थे, विशिष्ट रूप से बारभूम और घाटशिला की पहाड़ियों के बीच । उन्होंने अपनी भूमि को एक प्रकार के सामंतवादी काल में रखा, लेकिन वे घनिष्ठ रूप से अपनी मिट्टी से जुड़े नहीं थे।
वे अपने जंगल प्रमुख या जमींदार के पास इसे बोली पर छोड़कर, दूसरी जमीन पर खेती करने को सदैव तैयार रहते थे। 1771 में, चुआर सरदारों, धादका के शाम गंजन, कालीपाल और दुबराज के सुबला सिंह ने विद्रोह किया। इस समय, हालांकि, उन्हें अपने लोगों का समर्थन प्राप्त हुआ।
1798 में फिर से, दुर्जन सिंह ने विद्रोह का नेतृत्व किया, जो रायपुर का जर्मीदार था, जिसे बंगाल रेग्यूलेशन अभियान के कारण जमींदारी से बेदखल कर दिया गया। मई 1798 में, उसके अनुयायियों ने, लगभग 1500 चुआर, रायपुर एस्टेट की नीलामी की रोकने के लिए हिंसक गतिविधियां कीं। इस विद्रोह का अंग्रेजों ने बेहद बर्बरता से दमन किया । चुआर के अन्य नेताओं में माधव सिंह, राजा बारभूम का भाई, राजा मोहन सिंह, जूरिच के जमींदार और दुलमा के लक्ष्मण सिंह शामिल थे। (‘चुआर” शब्द को कुछ इतिहासकार अपमानजनक मानते हैं, जिन्होंने इस विद्रोह को “जंगल महल का विद्रोह’ कहा।)
कोल विद्रोह (1881)
यह विद्रोह रांची, सिंहभूम, हजारीबाग, पलामू और मानभूम के पश्चिमी क्षेत्रों में फैला था। विद्रोह की आग उस समय सुलगी जब कोल मुखियाओं (मुंडा) से बड़े पैमाने पर जमीन का हस्तांतरण हिंदू, सिख एवं मुस्लिम जैसे बाहरी किसानों को किया गया। इस कार्य से छोटा नागपुर के कोल नाराज हो गए और 1831 में, बुदूधो भगत के नेतृत्व में कोल विद्रोहियों ने हजारों बाहरी किसानों को मार दिया या जला दिया। केवल बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान से कानून व्यवस्था एवं शांति पुनः स्थापित की जा सकी।
मुण्डा विद्रोह (1820-1837)
राजा परहत ने अपनी हो जनजातियों को सिंहभूम एवं छोटा नागपुर जिलों को अंग्रेजों द्वारा हस्तगत करने के विरोध में संगठित किया। यह विद्रोह निरंतर 1827 तक चला जब हो जनजातियों को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया गया। हालांकि, बाद में 1831 में, उन्होंने अंग्रेजों की नवीन कृषि राजस्व नीति और उनके क्षेत्र में बंगालियों के प्रवेश के विरोध में फिर से विद्रोह का स्वर बुलंद किया। हालांकि, विद्रोह को वर्ष 1832 में क्षीण कर दिया गया तथापि ‘हो’ अभियान 1837 तक जारी रहे। मुण्डा काफी लंबे समय तक शांत नहीं रहे। [1899-1900 में, मुण्डा ने रांची के दक्षिण क्षेत्र में बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में विद्रोह शुरू किया। 1860-1920 की समयावधि के दौरान उलगुलान विद्रोह एक महत्वपूर्ण आदिवासी विद्रोह था।
विद्रोह, जिसे एक धार्मिक आंदोलन के रूप में प्रारंभ किया गया था, ने सामंती एवं जमींदारी व्यवस्था शुरू किए जाने और साहूकारों, वनों के ठेकेदारों के शोषण के विरुद्ध लड़ाई लड़ने के लिए राजनीतिक बल एकत्रित किया। चुनौती उस समय और बढ़ गई जब मुण्डा ने 1879 में छोटा नागपुर पर अपना दावा किया। तब ब्रिटिश सशस्त्र सेना को तैनात किया गया। बिरसा को पकड़कर जेल में डाल दिया गया |
संथाल विद्रोह (1855-56)
संथालों, कृषि करने वाली जनजाति, के निरंतर दमन ने जमींदारों के विरुद्ध उनके विद्रोह को जन्म दिया। साहूकारों ने, जिन्हें पुलिस का समर्थन प्राप्त था, जमींदारों का साथ दिया और किसानों पर अत्याचार किया तथा उन्हें भूमि से बेदखल किया। यह विद्रोह ब्रिटिश शासन विरोधी आंदोलन में परिवर्तित हो गया। सिद्धू एवं कान्हू के नेतृत्व में, संघाल ने कंपनी शासन के अंत की घोषणा कर दी, और भागलपुर तथा राजमहल के बीच के क्षेत्र को स्वायत्त घोषित कर दिया। विद्रोहियों को 1856 तक कुचल दिया गया।
खॉड विद्रोह (1837-1856)
1837 से 1856 के बीच ओडिशा से आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम और विशाखापट्नम जिले में विस्तारित पहाड़ी क्षेत्र के खोंड जनजाति ने कंपनी ने शासन को विरुद्ध विद्रोह किया। चक्र बिसोई के नेतृत्व में खोंड ने, जिनमें चुमसर, कालाहाडी एवं अन्य जनजातियां शामिल हुईं, जनजातीय रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप किए जान, नए कर आरोपित करने और जमींदारों का उनके क्षेत्रों में प्रवेश करने का विरोध किया। चक्र बिसोई का नेतृत्व समाप्त होते ही यह विद्रोह भी समाप्त हो गया।
1914 में ओडिशा क्षेत्र में फिर से खोंड विद्रोह इस आशा से शुरू हुआ कि विदेशी शासन का अंत होगा और वे स्वायत्त सरकार हासिल कर सकेंगे।
कोया विद्रोह
पूर्वी गोदावरी क्षेत्र (आधुनिक आंध्र प्रदेश) के कोया, जिनमें खोंडा सारा जनजाति के सरदार शामिल हुए, ने 1803, 1840, 1845, 1858, 1861 और 1862 में विद्रोह किया। टोम्मा सोरा के नेतृत्व में उन्होंने पुनः 1879-80 में विद्रोह किया। पुलिस का दमन एवं महाजनों द्वारा शोषण, नवीन वन कानून तथा वनों पर उनके परम्परागत अधिकारों से इंकार इत्यादि विद्रोह के प्रमुख कारण थे। टोम्मा सोरा की मृत्यु के पश्चात्, 1886 में राजा अनन्तैय्यार के नेतृत्व में एक अन्य विद्रोह संगठित किया गया।
भील विद्रोह
भील, जो पश्चिम घाट में रहते थे, 1817-19 के दौरान कंपनी शासन के विरुद्ध विद्रोह किया। बाद में, एक सुधारक गोविंद गुरू ने दक्षिण राजस्थान के भीलों की संगठिन होने और 1913 तक भील राज के लिए लड़ने में मदद की।
कोली विद्रोह
भील के पड़ोस में रहने वाली कोली जनजाति ने 1829, 1839 और दोबारा 1844-48 के दौरान कंपनी शासन के विरुद्ध विद्रोह किया। उनकी नाराजगी उन पर कंपनी शासन के थोपे जाने से थी जिससे व्यापक पैमाने पर बेरोजगारी फैली और उनके किलों को बर्बाद कर दिया गया।
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