नीति-निदेशक सिद्धांतों का महत्व
नीति-निदेशक सिद्धांतों:
उपरोक्त आधार पर नीति निदेशक सिद्धांतों की बड़ी तीव्र आलोचना की गई है फिर भी ये देश के शासन में आधारभूत महत्व रखते हैं। कोई भी सरकार इनकी उपेक्षा नहीं कर सकती l न्यायमूर्ति हेगडे के अनुसार यदि हमारे संविधान में कोई भाग ऐसा है जिन पर सावधानी और गहराई से विचार करने की आवश्यकता है तो वह भाग तीन और चार है। उनमें हमारे संविधान का दर्शन निहित है।
नीति-निदेशक तत्वों का महत्व:
1. शासन के मूल्यांकन का आधार : इन सिद्धांतों का एक बहुत बड़ा लाभ यह है कि ये भारतीय जनता के पास सरकार की सफलताओं को आंकने की कसौटी हैं। मतदाता इन आदर्शों को सम्मुख रखकर अनुमान लगाते हैं कि शासन को चलाने वाली पार्टी ने अपनी शासन संबंधी नीति को बनाते समय किस सीमा तक इन सिद्धांतों का पालन किया है।
लोग शासन को चलाने वाली पार्टी को, जो इन नियमों का पालन नहीं करती, वोट नहीं देते। अतः हमें यह मानना पड़ेगा कि ये सिद्धांत कानूनी रूप में लागू नहीं किए जा सकते तो भी इनसे उदासीन नहीं रहा जा सकता | डॉ. अन्बेडकर के अनुसार “निदेशक सिद्धांत हमारे आर्थिक लोकतंत्र के आदर्श को प्रकट करते हैं” । जनता का कोई भी उत्तरदायी मंत्रिमंडल सरलता से संविधान में दिए गए इन सिद्धांतों के विरूद्ध जाने का विचार नहीं कर सकता।
2. आर्थिक स्वतंत्रता के प्रवर्तक : वास्तव में ये सिद्धांत भारतीय संविधान की प्रस्तावना की व्याख्या करते है। जिसके अनुसार देश में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय स्थापित करने का वचन दिया गया है। इस प्रकार इन सिद्धांतों के पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं है फिर भी ये बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान तथा आगामी कोई भी सरकार इनकी ओर से उदासीन नहीं हो सकती।
3. राज्य सरकारों के लिए प्रकाश स्तंभ के रूप मैं : निदेशक सिद्धांत केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों का पथ-प्रदर्शन करते हैं| संविधान के अनुच्छेद 37 के अनुसार, “इन सिद्धांतों को शासन का मौलिक आदेश घोषित किया गया है, जिन्हें कानून बनाने तथा लागू करते समय ध्यान में रखना प्रत्येक सरकार का कर्तव्य माना गया है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल मंत्रिमंडल बनाएं, उसे अपनी आंतरिक तथा बाह्य नीति निश्चित करते समय इन सिद्धांतों को अवश्य ध्यान में रखना पड़ेगा। इस तरह से ये सिद्धांत मानो सभी राजनीतिक दलों के संयुक्त चुनाव-घोषणा पत्र हैं। अपने कानूनी तथा कार्यकारी कामों में ये सिद्धांत प्रत्येक दल के लिए मार्गदर्शक, दार्शनिक तथा मित्र का रोल निमाते हैं।’
4. संबैधानिक पवित्रता : निदेशक सिद्धांत उसी प्रकार पवित्र है जिस प्रकार संविधान के अन्य अनुच्छेद। यह कहना ठीक नहीं कि न्यायालय की शक्ति के अभाव में वे संवैधानिक पवित्रता खो बैठते हैं। सूर्यपाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार केस में न्यायालय ने कहा है कि यदि कानून ‘शासन के आधारभूत सिद्धांत निदेशक तत्वों का विरोध करता है तो उसे अवैध घोषित कर दिया जाएगा। पंडित नेहरू ने चौथे संशोधन के समय स्पष्ट रूप से कहा था कि अगर संविधान का कोई अनुच्छेद निदेशक सिद्धांतों को व्यवहारिक रूप देने में बाधा पहुंचाता है तो संविधान में आवश्यक संशोधन किया जा सकता है।
5. नीति-निदेशक सिद्धांतों के पीछे जनमत की शक्ति होती है : राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत चाहे न्यायालयों द्वारा लागू नहीं कराए जा सकते हों तो भी इनका विशेष महत्व है। प्रत्येक प्रजातंत्रीय सरकार को जनमत के अनुसार चलना पड़ता है। इसलिए कोई भी सरकार आज के युग में जनमत का विरोध नहीं कर सकती। जब कोई शासक पार्टी इन सिद्धांतों से उदासीन होकर जनमत को अपना विरोधी बना लेती है तब वह अपने लिए खतरा मोल लेती है तथा उसके लिए अपना शासन बनाए रखना कठिन हो जाता है। एम.वी. पायली का कथन है कि इन हानिकारक परिणामों से डरते हुए कोई भी शासक पार्टी निदेशक सिद्धांतों की ओर से उदासीन नहीं हो सकती।
6. मौलिक अधिकारों का सहायक:- मौलिक अधिकारों की घोषणा इसलिए की गई है कि प्रत्येक नागरिक अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके, परंतु मौलिक अधिकारों को अपने उद्देश्य में तब तक सफलता नहीं मिल सकती, जब तक निदेशक सिद्धांतों को लागू न किया जाए। मौलिक अधिकारों ने नागरिकों को राजनीतिक स्वतंत्रता तथा समानता प्रदान की
है जिसका उस समय तक कोई लाभ नहीं है जब तक कि सामाजिक और आर्थिक समानता की स्थापना न की जाए। पायली के अनुसार, “राजनीतिक लोकतंत्र को बनाए रखने में सबसे अधिक प्रभावशाली शक्ति आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना है | जहां आर्थिक लोकतंत्र नहीं, राजनीतिक लोकतंत्र शीघ्र ही तानाशाही में बदल जाएगा।”
7. संविधान की व्याख्या करने में सहायक हैं:- इन सिद्धांतों का महत्व इस बात में भी है कि ये भारतीय न्यायालयों के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं। न्यायालयों ने बहुत सारे अभियोगों निर्णय करते हुए इनको उचित महत्व दिया है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे वास्तव में भारतीय शासन के मूल आधार हैं। उदाहरणस्वरूप बिहार सरकार बनाम कामेश्वर सिंह के अभियोग का निर्णय करते समय उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 39 की व्याख्या की थी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि निदेशक सिद्धांत बड़े लाभदायक सिद्ध हो जाते हैं। केरल मठ के स्वामी केशवानन्द बनाम यूनियन सरकार के मुकदमे में भी सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत विस्तार से निदेशक सिद्धांतों पर विचार किया। भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश कानिया (Kania) के अनुसार, “ये सिद्धांत संविधान का भाग होने के नाते बहुमत की अस्थायी इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करते; बल्कि समस्त राष्ट्र की बुद्धिमत्ता के प्रतीक हैं जिसे संविधान सभा में प्रकट किया गया।’
8. कल्याणकारी राज्य के आदर्श:-नीति निदेशक सिद्धांतों द्वारा कल्याणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा की गई है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए जिन बातों की आवश्यकता होती है उन सभी को निदेशक सिद्धांतों में निहित किया गया है। अनुच्छेद 38 में स्पष्ट कहा गया है, “राज्य लोगों के कल्याण के लिए ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने और उसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा, जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं में लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।’ डॉ. अम्बेडकर ने कहा है, “संविधान का उद्देश्य केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही लोकतंत्र की स्थापना नहीं है, जिसमें कानूनी शक्ति का आधार वयस्क मताधिकार होता है और कार्यकारिणी विधानमंडल होती है, बल्कि कल्याणकारी राज्य को भी बढ़ावा देना है जिसमें सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र भी होता है।’
9. नैतिक आदर्श के रूप में:-कुछ आलोचकों द्वारा नीति निदेशक सिद्धांतों की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि ये मात्र नैतिक आदर्श हैं लेकिन इससे इन सिद्धांतो की महन्ता कम नहीं होती| नीति निदेशक सिद्धांतो की भांति इंग्लैंड के मैग्ना कार्टा (1215) को कोई कानूनी बल प्राप्त न था परन्तु फिर भी अंग्रेज इसे अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आधार मानते हैं|
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