महात्मा गाँधी के विचार आध्यात्मिक दर्शन और राजनितिक विचार।

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महात्मा गाँधी के विचार आध्यात्मिक दर्शन और राजनितिक विचार।

महात्मा गाँधी के विचार (Mahatma Gandhi)

महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 ई. को गुजरात के पोरबन्दर नामक नगर में एक वैष्णव परिवार में हुआ था। महात्मा गांधी का पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गांधी था। गांधी जी के पिता करमचन्द गांधी काठियावाड़ की छोटी रियासत में दीवान पद पर कार्यरत थे और अपनी ईमानदारी के कारण उस क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध थे। उनकी माता श्रीमती पुतलीबाई थी।और हम महात्मा गाँधी के विचार के बारे में जानेंगे।

 

1891 ई. में वे लन्दन से बैरिस्टर बन कर भारत लौटे। इंग्लैण्ड से भारत लौटने के बाद गांधीजी ने बम्बई और काठियावाड़ हाई कोर्ट में वकालात करना प्रारम्भ किया। इसी समय उन्हें दादा अब्दुल्ला एण्ड कम्पनी नामक व्यावसायिक संस्था की ओर से दक्षिण अफ्रीका में उसके कानूनी कार्य देखने और मुकदमा लड़ने के लिए 105 पौण्ड वार्षिक वेतन पर कार्य करने का प्रस्ताव मिला गांधीजी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। और 1893 ई. में वे डरबन (दक्षिण अफ्रीका) चले गये तथा 1914 ई. तक वहाँ रहे। दक्षिण अफ्रीका में नाटाल के सर्वोच्च न्यायालय में वकील के रूप में वे पहले पंजीकृत भारतीय थे।

Mahatma Gandhi

सरकार के विरुद्ध उन्होंने वहाँ भारतीयों को संगठित करना प्रारम्भ किया और सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ किया। सन् 1896 ई. में वे अपने परिवार को भी वहाँ ले गये। वहाँ उन्होंने ट्रांसवाल ब्रिटिश इण्डियन एसोसियेशन तथा फीनिक्स आश्रम की स्थापना की तथा ‘इण्डियन ओपीनियन’ नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। उनके सत्याग्रह प्रभाव के कारण ही दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार को अपनी भेद-भाव की नीतियाँ त्यागनी पड़ीं।

 

दक्षिण अफ्रिका में सत्याग्रह की सफलता के पश्चात् वे सन् 1914 ई. में भारत लौटे। 1914 ई. में बम्बई की जनता न उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि प्रदान की। 1915 ई. में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘केसर-ए-हिन्द’ की उपाधि प्रदान की। इसी वर्ष उन्होंने अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे ‘सत्याग्रह आश्रम’ (जो कालान्तर में साबरमती आश्रम के नाम से विख्यात हुआ) की स्थापना की।

 

गांधीजी का आध्यात्मिक दर्शन

* गांधीजी के आध्यात्मिक आदर्शवाद को अग्रलिखित पहलुओं में परिलक्षित किया जा सकता है-

ईश्वर के अस्तित्व में अटूट विश्वास :

महात्मा गांधी के जीवन और चिन्तन में ईश्वर की अवधारणा सदैव सर्वोपरि रही है। ईश्वर के प्रति अपने अटूट विश्वास के कारण उन्होंने कहा- यह भी कह सकता हूँ कि वायु और जल के बिना तो शायद मैं रह सकता हूँ किन्तु उसके (ईश्वर) बिना मैं नहीं रह सकता। तुम मेरी आँखें निकाल सकते हो, किन्तु उससे मैं नहीं मरूँगा। तुम मेरी नाक काट सकते हो, किन्तु उससे मैं नहीं मर सकता, परन्तु ईश्वर में से मेरा विश्वास गया और मैं मरा।” गांधीजी की ईश्वर की अवधारणा सत्य की अवधारणा से जुड़ी हुई है। उनके लिए सत्य ही ईश्वर है और ईश्वर ही सत्य है।

सत्य की अवधारणा :

सत्य गांधीजी के दर्शन और चिन्तन का आधारभूत तत्व रहा है। सत्य और ईश्वर में कोई अन्तर न करते हुए उन्होंने सत्य को छोड़ किसी बात को स्वीकार करना कभी पसन्द नहीं किया। उनके अनुसार सत्य बोलना या सत्य के प्रति निष्ठा रखना मात्र ही सत्य नहीं है अपितु मन, वचन और आचरण तीनों सत्य से युक्त होने चाहिए। गांधीजी ने सत्य के दो रूप बताए- निरपेक्ष सत्य और सापेक्ष सत्य । निरपेक्ष सत्य का तात्पर्य ईश्वर की सत्ता से है। उनके अनुसार यह सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और शाश्वत होता है। निरपेक्ष सत्य अन्तिम सत्य होता है, जबकि सापेक्ष सत्य वह सत्य है जिसे हम किन्हीं विशेष परिस्थितियों के विषय में देखते हैं। यह पूर्ण और अन्तिम सत्य नहीं होता, क्योंकि जो विशेष परिस्थितियों में सत्य हो सकता है, वह अन्य परिस्थितियों में सत्य न भी हो सकता है।

अहिंसा की अवधारणा-

गांधीजी ने सत्य की प्राप्ति के लिए अहिंसा को अति आवश्यक तत्त्व माना है। वे अहिंसा को साध्य नहीं मानते थे अपितु साध्य (सत्य) प्राप्ति का उसे एक पवित्र साधन माना। उनका दृढ़ विश्वास था कि सभी मानवीय समस्याओं का निराकरण अहिंसा के अमोघ अस्त्र से किया जा सकता है।

अहिंसा का अभिप्राय-

शाब्दिक रूप से अहिंसा का अभिप्राय है- न मारना। आम रूप से लोग अहिंसा को इसी अभिप्राय से लेते हैं। किन्तु गांधीजी की अहिंसा की अवधारणा व्यापक अर्थ लिये हुये है। उनके अनुसार मन, वचन और कर्म से किसी प्राणी को आघात नहीं पहुँचाना अहिंसा है। उनके अनुसार तो बुरे विचार मात्र ही हिंसा है। झूठ बोलना हिंसा है। किसी का अहित चाहना मात्र हिंसा है। इस प्रकार गांधीजी के अनुसार अहिंसा वह साधन है, जिससे सत्य को प्राप्त किया जा सकता है।

अहिंसा के तीन रूप

गांधीजी का दृष्टिकोण था कि सभी व्यक्ति सदैव अहिंसा का समान रूप से पालन करने में समर्थ. नहीं होते हैं। यहाँ तक कि एक ही व्यक्ति भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में अहिंसा का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से प्रयोग करता है। इस प्रकार अहिंसा को अपनाने और स्वीकार करने के पीछे व्यक्ति के दृष्टिकोणों के आधार पर गांधीजी ने इसके तीन रूप बताये। हैं- जागृत अहिंसा, औचित्य अहिंसा तथा कायरों की अहिंसा ।

अहिंसा की अतिव्यापकता

गांधीजी अहिंसा को हिंसा से श्रेष्ठ मानते हुए उसे अतिव्यापक मानते थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि हिंसा भी अहिंसा के सहारे के बिना रह नहीं सकती। वे हिंसा को अहिंसा का एक विकृत रूप मानते थे। उनके अनुसार विश्व के जितने भी बड़े-बड़े हिंसात्मक आन्दोलन तथा क्रान्तियाँ हुई हैं उन सबके पीछे मूल रूप से समाज में अहिंसा की स्थापना की भावना प्रभावी रही है।

अहिंसा साधन के रूप में

गांधीजी का मानना था कि अहिंसा केवल दर्शन मात्र नहीं है अपितु कार्य करने का एक तरीका अथवा साधन है। यह केवल व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नति का ही साधन नहीं है अपितु सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा पारिवारिक समस्याओं के निवारण का भी साधन है।

साध्य और साधन-

गांधीजी ने साध्य और साधन दोनों पर समान बल दिया। उनके अनुसार यह पर्याप्त नहीं है कि साध्य के अनुरूप साधन भी उतने ही विशुद्ध होने चाहिए। गांधीजी का मानना था कि यदि कोई व्यक्ति अनैतिक साधनों से अपने ध्येय प्राप्ति का प्रयास करेगा तो वह अपने लक्ष्य से कहीं अलग ही पहुँचेगा। अतः उनका मानना था कि साधनों की अनैतिकता के कारण कितना भी उच्च नैतिक साध्य क्यों न हो, नष्ट हो जायेगा। साधन और साध्य की पवित्रता पर समान बल देते हुए गांधीजी ने कहा-“साधनों की तुलना बीज से की जा सकती है और साध्य की वृक्ष से और जो अटूट सम्बन्ध बीज और वृक्ष में है, वही साध्य और साधना के बीच भी है।”

सत्याग्रह :

राजनीतिक सिद्धान्त और भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को सत्याग्रह सबसे बड़ी देन है। सर्वप्रथम गांधीजी ने इसका प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में सरकार की भेद-भावपूर्ण नीतियों के विरुद्ध किया। सत्य + आग्रह शब्द से सत्याग्रह का निर्माण हुआ है जिसका तात्पर्य है- सत्य के लिए अपने लक्ष्य पर अडिग रहना। गांधीजी ने इसे आत्म-बल या प्रेम-बल भी कहा। इस प्रकार एक सत्याग्रही अपने विरोधी को कष्ट देने की शक्ति का मुकाबला हिंसात्मक साधनों से नहीं, अपितु अपनी कष्ट सहन करने की शक्ति से करता है। अतः यह साहसी व्यक्तियों का अस्त्र है।

सत्याग्रही के गुण-

हिन्द स्वराज्य में गांधीजी ने सत्याग्रही के लिए 11 व्रतों का पालन करना आवश्यक बताया। ये व्रत हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शारीरिक श्रम, अस्वाद, निर्भीकता, सब धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखना, स्वदेशी और अस्पृश्यता निवारण।

सत्याग्रह के साधन-

गांधीजी ने निम्न साधनों को सत्याग्रह के प्रमुख साधन माने हैं- असहयोग-सत्याग्रह के विभिन्न साधनों में असहयोग सबसे प्रमुख साधन है। गांधीजी के अनुसार व्यक्ति जिसे अनैतिक, अहितकर या असत्य माने, उसके साथ किसी भी प्रकार का सहयोग न करना ही असहयोग है। हड़ताल – हड़ताल का अभिप्राय है अन्याय और असत्य के विरोध में कुछ समय के लिए अपने निजी कार्यों को रोक कर प्रतीकात्मक रूप में अपना प्रतिरोध स्पष्ट करना । बहिष्कार- बहिष्कार गांधीजी की दृष्टि में सत्याग्रह का एक प्रभावकारी साधन है। वे बहिष्कार के सामाजिक स्वरूप में समाज के उन पथभ्रष्ट लोगों से सामाजिक सम्बन्ध विच्छेद करने की बात करते हैं जो जनमत की उपेक्षा करते हैं। धरना-गांधीजी के अनुसार सत्य के विरुद्ध दृष्टिकोण रखने वाले पक्ष को चेतावनी, देते तथा उसके विचारों में परिवर्तन के लिये इसका प्रयोग किया जाना चाहिए। सविनय अवज्ञा-सविनय अवज्ञा का अभिप्राय है अनैतिक तथा अन्यायपूर्ण नियमों की अवहेलना करना । गांधीजी ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में 1930 ई. में इसका प्रयोग किया था तथा नमक-कानून को तोड़ा था।

उपवास-

यह सत्याग्रह का बहुत अधिक उग्र साधन है अतः इसका प्रयोग बहुत ही सामान्य परिस्थितियों में तथा दूसरे पर दबाव डालने
के लिए नहीं किया जाना चाहिए। हिजरत-यह सत्याग्रह का एक अन्य रूप है जिसका तात्पर्य है-आत्म-सम्मान को बनाये रखते हुए स्वेच्छा से स्थान परिवर्तित करना अर्थात् यदि किसी स्थान पर दमन के कारण व्यक्ति स्वयं को पीड़ित अनुभव करे तथा उस स्थान पर अहिंसात्मक रूप से अपने आत्म-सम्मान की रक्षा न कर सके तो ऐसी परिस्थितियों में उसे दमनकारी स्थान का परित्याग कर अन्यत्र चले जाना चाहिए।

निष्कर्ष

दोस्तों हम लोगों ने आज ऊपर आर्टिकल में महात्मा गाँधी के विचार आध्यात्मिक दर्शन और राजनीतिक विचार के बारे में जाना है तो दोस्तों आपको महात्मा गांधी के विचार ऊपर के आर्टिकल में पढ़कर कैसा लगा आप हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।

 

 

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