महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलन | प्रमुख आदिवासी विद्रोह और उनकी विशेषताएं

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महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलन और उनकी प्रमुख विशेषताएं

भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में आदिवासी आंदोलनों का एक विशिष्ट और गौरवपूर्ण स्थान है। ये विद्रोह अलग-अलग समय और स्थान पर हुए, लेकिन सभी की जड़ें समान रहीं—अपनी भूमि, संस्कृति और अधिकारों की रक्षा। औपनिवेशिक शोषण, महाजनों का अत्याचार और परंपराओं में हस्तक्षेप इनके प्रमुख कारण बने।

आदिवासी विद्रोहों की सामान्य विशेषताएं

महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलन एक दूसरे से समय एवं काल में अलग होने के बावजूद आदिवासी विद्रोहों में कुछ समान विशेषताएं थी।

  • आदिवासी पहचान या जातीय समानता इन समूहों की एकता के पीछे थी। सभी ‘बाहरी लोगों” को शत्रु के तौर पर नहीं देखा गया। निर्धन लोग जो वैयक्तिक श्रम पर निर्भर थे और गांव में सामाजिक/आर्थिक रूप से सहयोगात्मक भूमिका में थे, अकेसे पड़ गए। इस आंदोलन ने महाजनों एवं व्यापारियों के प्रति हिंसा की, जिन्हें औपनिवेशिक सरकार के विस्तार के तौर पर देखते थे।

  • विदेशी सरकार द्वारा आरोपित नियमों, जिन्हें वे आदिवासियों के परम्परागत सामाजिक-आर्थिक रूपरेखा/ताने-बाने को नष्ट करने के प्रयास के रूप में देखते थे, के खिलाफ रोष विद्रोह का एक सामान्य कारण था।
  • अधिकतर विद्रोहों का नेतृत्व मसीहा जैसे व्यक्तियो ने किया, जिन्होंने अपने लोगों को विद्रोह करने को प्रोत्साहित किया और “बाहरी लोगों” द्वारा उन्हें दिए गए दुःखों का अंत करने का वचन दिया।
  • आदिवासी आंदोलन शुरुआत से ही अभिशप्त थे, क्योंकि उनके पास अपने शत्रु से युद्ध के लिए परम्परागत हथियार थे। जबकि अंग्रेजों के पास आधुनिक तकनीक पर आधारित हथियार थे।

प्रमुख आदिवासी आंदोलन

यहां विचार किया गया है। है कि महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलन पर गौरतलब है कि अधिकतर आदिवासी आंदोलन, यदि हम सीमांत आदिवासी क्षेत्रों को छोड़ दे, मध्य भारत, पश्चिमी-मध्य क्षेत्र और दक्षिण में केन्द्रीत थे।

1. पहाड़िया विद्रोह (1778)

पहाड़िया, राजमहल की पहाड़ियों में बसी एक लड़ाकू जनजाति थी, जिसने अपने क्षेत्र का अतिक्रमण किये जाने के विरोध में 1778 में सशस्त्र विद्रोह प्रारंभ कर दिया। स्थानीय जनजातीय सरदारों ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। यह विद्रोह अत्यंत हिंसक एवं खूनी था। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को निर्दयतापूर्वक कुचल दिया।

राजमहल की पहाड़ियों में रहने वाली पहाड़िया जनजाति ने अंग्रेजों के अतिक्रमण का कड़ा विरोध किया। स्थानीय सरदारों के नेतृत्व में यह विद्रोह अत्यंत हिंसक हुआ, लेकिन अंग्रेजों ने इसे निर्दयता से दबा दिया।

2. चुआर विद्रोह (1766–1816)

मिदनापुर जिले की चुआर जनजाति ने अकाल, भू-राजस्व की बढ़ोतरी और आर्थिक संकट के खिलाफ विद्रोह किया। यह विद्रोह कई बार भड़का और इसमें दुर्जन सिंह, माधव सिंह और लक्ष्मण सिंह जैसे नेताओं ने भाग लिया। इतिहासकार इसे जंगल महल विद्रोह भी कहते हैं।

3. कोल विद्रोह (1831)

यह विद्रोह रांची, सिंहभूम, हजारीबाग, पलामू और मानभूम के पश्चिमी क्षेत्रों में फैला था। विद्रोह की आग उस समय सुलगी जब कोल मुखियाओं (मुंडा) से बड़े पैमाने पर जमीन का हस्तांतरण हिंदू, सिख एवं मुस्लिम जैसे बाहरी किसानों को किया गया। इस कार्य से छोटा नागपुर के कोल नाराज हो गए और 1831 में, बुदूधो भगत के नेतृत्व में कोल विद्रोहियों ने हजारों बाहरी किसानों को मार दिया या जला दिया। केवल बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान से कानून व्यवस्था एवं शांति पुनः स्थापित की जा सकी।

4. मुण्डा विद्रोह (1820–1837, 1899–1900)

राजा परहत और बाद में बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में यह विद्रोह छोटा नागपुर और सिंहभूम क्षेत्रों में चला। अंग्रेजों की नई भू-राजस्व नीतियों और साहूकारों-जमींदारों के शोषण के खिलाफ यह आंदोलन लंबे समय तक जारी रहा। बिरसा मुण्डा का उलगुलान आंदोलन आदिवासी इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है।

5. संथाल विद्रोह (1855–56)

संथालों, कृषि करने वाली जनजाति, के निरंतर दमन ने जमींदारों के विरुद्ध उनके विद्रोह को जन्म दिया। साहूकारों ने, जिन्हें पुलिस का समर्थन प्राप्त था, जमींदारों का साथ दिया और किसानों पर अत्याचार किया तथा उन्हें भूमि से बेदखल किया। यह विद्रोह ब्रिटिश शासन विरोधी आंदोलन में परिवर्तित हो गया। सिद्धू एवं कान्हू के नेतृत्व में, संघाल ने कंपनी शासन के अंत की घोषणा कर दी, और भागलपुर तथा राजमहल के बीच के क्षेत्र को स्वायत्त घोषित कर दिया। विद्रोहियों को 1856 तक कुचल दिया गया।

6. खोंड विद्रोह (1837–1856, 1914)

1837 से 1856 के बीच ओडिशा से आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम और विशाखापट्नम जिले में विस्तारित पहाड़ी क्षेत्र के खोंड जनजाति ने कंपनी ने शासन को विरुद्ध विद्रोह किया। चक्र बिसोई के नेतृत्व में खोंड ने, जिनमें चुमसर, कालाहाडी एवं अन्य जनजातियां शामिल हुईं, जनजातीय रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप किए जान, नए कर आरोपित करने और जमींदारों का उनके क्षेत्रों में प्रवेश करने का विरोध किया। चक्र बिसोई का नेतृत्व समाप्त होते ही यह विद्रोह भी समाप्त हो गया।

1914 में ओडिशा क्षेत्र में फिर से खोंड विद्रोह इस आशा से शुरू हुआ कि विदेशी शासन का अंत होगा और वे स्वायत्त सरकार हासिल कर सकेंगे।

7. कोया विद्रोह

पूर्वी गोदावरी क्षेत्र (आधुनिक आंध्र प्रदेश) के कोया, जिनमें खोंडा सारा जनजाति के सरदार शामिल हुए, ने 1803, 1840, 1845, 1858, 1861 और 1862 में विद्रोह किया। टोम्मा सोरा के नेतृत्व में उन्होंने पुनः 1879-80 में विद्रोह किया। पुलिस का दमन एवं महाजनों द्वारा शोषण, नवीन वन कानून तथा वनों पर उनके परम्परागत अधिकारों से इंकार इत्यादि विद्रोह के प्रमुख कारण थे। टोम्मा सोरा की मृत्यु के पश्चात्, 1886 में राजा अनन्तैय्यार के नेतृत्व में एक अन्य विद्रोह संगठित किया गया।

8. भील विद्रोह

भील, जो पश्चिम घाट में रहते थे, 1817-19 के दौरान कंपनी शासन के विरुद्ध विद्रोह किया। बाद में, एक सुधारक गोविंद गुरू ने दक्षिण राजस्थान के भीलों की संगठिन होने और 1913 तक भील राज के लिए लड़ने में मदद की।

9. कोली विद्रोह

भील के पड़ोस में रहने वाली कोली जनजाति ने 1829, 1839 और दोबारा 1844-48 के दौरान कंपनी शासन के विरुद्ध विद्रोह किया। उनकी नाराजगी उन पर कंपनी शासन के थोपे जाने से थी जिससे व्यापक पैमाने पर बेरोजगारी फैली और उनके किलों को बर्बाद कर दिया गया।

निष्कर्ष

आदिवासी आंदोलनों ने न केवल औपनिवेशिक शासन को चुनौती दी बल्कि अपनी संस्कृति, परंपरा और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अद्वितीय साहस दिखाया। इन विद्रोहों ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूत आधार प्रदान किया और यह साबित किया कि आज़ादी की चाह सिर्फ़ बड़े शहरों तक सीमित नहीं थी, बल्कि जंगलों और पहाड़ों में भी गूंज रही थी।

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