मृदा किसे कहते हैं? मृदा कितने प्रकार की होती हैं?
नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका आज के इस नए आर्टिकल में दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि मृदा किसे कहते हैं? भारत में मृदा कितने प्रकार की होती हैं?
मृदा किसे कहते हैं?(What Is Soil)
पृथ्वी के सबसे ऊपरी भाग या परत को मृदा कहते हैं। यह मृदा अनेक प्रकार के खनिजों पौधों और जीव जंतुओं के अवशेषों से मिलकर बना होता है। यह जलवायु,पेड़-पौधों जीव-जंतुओं और भूमि की ऊंचाई के बीच लगातार परस्पर क्रिया के परिणामस्वरुप विकसित हुई है इनमें से प्रत्येक घटक क्षेत्र विशेष के अनुरूप बदलता रहता है अतः मृदाओं में भी एक स्थान से दूसरे स्थान के बीच विभिन्नता पाई जाती है।
मृदाओं का वर्गीकरण/प्रकार
भारत में अनेक प्रकार के उच्चावच,भू-आकृतियां,जलवायु और वनस्पतियां पाई जाती हैं इसी कारण अनेक प्रकार की मृदाएं विकसित हुई हैं।
जलोढ़ मृदा
यह मृदा विस्तृत रूप से फैली हुई है और यह जलोढ़ मृदा देश की महत्वपूर्ण मिट्टी है। वास्तव में पूरे उत्तरी मैदान जलोढ़ मृदा से बना है। यह मृदा हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी तंत्र सिंधु,गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा लाए गए निक्षेपो से बनी हैं। जलोढ़ मृदा एक सकरे गलियारे के द्वारा यह मृदा राजस्थान और गुजरात तक फैली है। पूर्वी तटीय मैदान विशेषकर महानदी,गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टा भी जलोढ़ मृदा से बने हैं।
जलोढ़ मृदा के प्रकार
कणो के आकार या घटकों के अलावा मृदाओं की पहचान उनकी आयु से भी होती है आयु के आधार पर जलोढ़ मृदाएं दो प्रकार की होती हैं-पुराना जलोढ़ (बांगर) और नया जलोढ (खादर)। बांगर मृदा में कंकर ग्रंथियों की मात्रा ज्यादा होती है खादर मृदा में बांगर मृदा की तुलना में ज्यादा महीन कण पाए जाते हैं।
जलोढ़ मृदा बहुत ही अधिक उपजाऊ होती है। अधिकतर जलोढ़ मृदा में पोटाश,फास्फोरस और चुनायुक्त होती हैं जो इनको गन्ने,चावल,गेहूं और अन्य अनाजों और दलहन फसलों की खेती के लिए उपयोगी माना जाता है। अधिक उपजाऊपन के कारण जलोढ़ मृदा वाले क्षेत्रों में गहन कृषि की जाती है और यहां जनसंख्या का घनत्व भी अधिक होता है।
काली मृदा
इस मृदा का रंग काला है इसलिए इसे काली मिट्टी भी कहा जाता है। और इस मृदा को रेगर मृदा भी कहा जाता है। काली मृदा कपास की खेती के लिए उचित समझी जाती है और काली कपास मृदा के नाम से भी जाना जाता है। इस मृदा को यह माना जाता है कि जलवायु और जनक शैलो ने काली मृदा के बनने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।इस प्रकार की मृदाएं दक्कन पठार बेसाल्ट क्षेत्र के उत्तर पश्चिमी भागों में पाई जाती हैं और लावा जनक शैलों से बनी है यह मृदा महाराष्ट्र,सौराष्ट्र,मालवा,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठार पर पाई जाती है और दक्षिण पूर्वी दिशा में गोदावरी और कृष्णा नदियों की घाटियों तक फैली है।
काली मृदा बहुत ही महीन कणों अर्थात मृतिका से बनी है इसकी नमी धारण करने की क्षमता बहुत होती है इसके अलावा यह मृदा कैलशियम कार्बोनेट,मैग्नीशियम, पोटाश और चूने जैसे पौष्टिक तत्वों से परिपूर्ण होती हैं लेकिन इनमें फास्फोरस की मात्रा कम होती है गर्म और शुष्क मौसम में इस मृदा में गहरी दरारें पड़ जाती हैं जिस कारण से इनमें अच्छी तरह वायु का मिश्रण हो जाता है। गीली होने पर यह चिपचिपी हो जाती है और इनको जोतना मुश्किल होता है इसलिए इसकी जुताई मानसून आने के पहले ही बौछार से शुरू कर दी जाती है।
लाल और पीली मृदा
लाल मृदा दक्कन पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में रवेदार आग्नेय चट्टानों पर कम वर्षा वाले भागों में विकसित हुई है। लाल और पीली मृदा इन उड़ीसा, छत्तीसगढ़,मध्य गंगा मैदान के दक्षिणी छोर पर और पश्चिमी घाट में पहाड़ी पद पर पाई जाती हैं इन मृदाओं का लाल रंग रवेदार आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों में लौह धातु के प्रसार के कारण होता है इनका पीला रंग इनमें जलयोजन के कारण होता है।
लेटराइट मृदा
लेटराइट शब्द ग्रीक भाषा के शब्द लेटर से लिया गया जिसका अर्थ है ईट। लेटराइट मृदा उच्च तापमान और अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में विकसित होती है यह भारी वर्षा से अधिक निक्षालन का परिणाम है इस मृदा में नमी की मात्रा कम पाई जाती है क्योंकि अत्यधिक तापमान के कारण जैविक पदार्थों को अपघटित करने वाले बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं।लेटराइट मृदा पर अधिक मात्रा में खाद और रासायनिक उर्वरक डालकर ही खेती की जा सकती है।यह मृदाए मुख्य तौर पर कर्नाटक,केरल, तमिलनाडु,मध्य प्रदेश और उड़ीसा के क्षेत्र में पाई जाती हैं मृदा संरक्षण की चिताओं पर कर्नाटक,केरल और तमिलनाडु में चाय और कॉफी उगाई जाती है तमिलनाडु,आंध्र प्रदेश और केरल की लाल लेटराइट मृदाएं काजू की फसल के लिए अधिक उपयोगी माना जाता है।
मरुस्थली मृदा
मरुस्थली मृदाओं का रंग लाल और भुरा होता है। यह मृदा है आमतौर पर रेतीली और लवणीय होती हैं। कुछ क्षेत्रों में नमक की मात्रा इतनी अधिक होती है कि झिलों से जल वाष्पीकृत करके खाने का नमक भी बनाया जाता है।शुष्क जलवायु और उच्च तापमान के कारण जलवाष्पन दर अधिक है और मृदा में ह्यूमस और नमी की मात्रा कम होती है। मृदा की सतह के नीचे कैल्शियम की मात्रा बढ़ती चली जाती है और नीचे की परतों में चूने के कंकर की सतह पाई जाती है। इसके कारण मृदा में जल अत: स्यंदन अवरुद्ध हो जाता है।इस मृदा को सही तरीके से सिंचित करके कृषि योग्य बनाया जा सकता है जैसा कि पश्चिमी राजस्थान में हो रहा है।
वन मृदा/पर्वतीय मृदा
यह मृदा आमतौर पर पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है। जहां पर्याप्त वर्षा वन उपलब्ध है। इन मृदाओं के गठन में पर्वतीय पर्यावरण के अनुसार बदलाव आता है। नदी घाटियों में ये मृदाएं दोमट और सिल्टदार होती हैं परंतु ऊपरी ढालो पर इनका गठन मोटे कणो का होता है। हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों में इन मृदाओं का बहुत अपरदन होता है। और ये अधिसिलिक तथा ह्यूमस रहित होती है। नदी घाटियों के निचले क्षेत्रों, विशेषकर नदी सोपानों और जलोढ़ पंखों आदि में ये मृदाएं उपजाऊ होती हैं।
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