वर्षा किसे कहते हैं वर्षा के प्रकार ? तथा कृत्रिम वर्षा

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वर्षा क्या है? | वर्षा के प्रकार और कृत्रिम वर्षा की पूरी जानकारी

वर्षा (Varsha) किसे कहते हैं?

जब वायुमंडल में मौजूद जलवाष्प संघनित होकर जल की बूंदों, हिमकणों या दोनों के मिश्रण के रूप में पृथ्वी की सतह पर गिरती है, तो उसे वृष्टि या वर्षा (Precipitation) कहते हैं।यह वर्षा तरल (बारिश), ठोस (बर्फ) और मिश्रित रूप (सहिम-वृष्टि) में हो सकती है।

"वर्षा क्या है चित्र - वर्षा का अर्थ हिंदी में"

वर्षा के प्रमुख प्रकार (Types of Rainfall)

1. जल वृष्टि या वर्षा (Rain)

जब वृष्टि जल की बूँदों के रूप में होती है तो इसे जलवृष्टि या वर्षा कहते हैं। इसमें जल की बूँदों का आकार 0.5 से 0.7 मिली मीटर व्यास का होता है।

2. हिमवृष्टि या हिमपात (Snowfall)

पृथ्वी की सतह पर अधिक मात्रा में हिमकण के बिना पिघलेगिरने को हिमवृष्टि या हिमपात या बर्फ का गिरना कहा जाताहै। यह उस समय होता है जब हिमांक स्तर धरातलीय सतह से 300 मीटर से अधिक ऊपर न हो।

3. सहिम-वृष्टि (Sleet)

  • सहिम-वृष्टि में वर्षा और हिमपात साथ-साथ होते हैं। इसके दो रूप हो सकते हैं-

(a) वर्षा की बूँदों के जमने से सहिम वृष्टि,

(b) हिमकणों के पिघल कर जल में परिवर्तित होने के बाद पुनः जलके जमने से होने वाली सहिम वृष्टि ।

  • यूनाइटेड किंगडम में यह वर्षा जल और हिम के मिश्रण के रूप में जबकि अमेरिका में पारदर्शी छोटे हिमकणों के रूप में होती है। जिनका व्यास 5 मिलीमीटर से कम होता है।

 

4. ओलावृष्टि (Hailstorm)

यह बड़े बर्फ के गोले के रूप में होती है। वास्तव में ओला (Hail) ठोस वर्षण के रूप में होता है जिसमें छोटे आकार की बर्फ होती
है। इसका व्यास 5-50 मिलीमीटर तक होता है। ये अत्यंत विनाशक होते हैं। संघनन के पश्चात् यदि तापमान 0°C से कम हो जाए तो जल ओला के रूप में परिवर्तित हो जाता है।

5. फुहार (Drizzle)

  • 0.5 मिलीमीटर से कम व्यास वाले छोटे जलकणों के नीचे की ओर गिरने को फुहार कहते हैं। ये निम्न स्तरीय बादल से गिर रहते हैं लेकिन धरातलीय सतह पर प्राप्त कुल वर्षा की मात्रा कम होती है।
  • समस्त ग्लोब पर औसत वार्षिक वर्षा 970 मिमी. है, परन्तु यह मात्रा सर्वत्र समान नहीं है। कुछ स्थानों पर यह मात्रा 100 मिमी. से भी कम है जैसे कालाहारी का गर्म मरुस्थल तथा भारत का थार मरुस्थल आदि। जबकि कुछ स्थानों पर 12,000 मिमी. से अधिक वर्षा होती है, जैसे भारत में मासिनराम तथा चेरापूँजी ।

 

उत्पत्ति के आधार पर वर्षा के प्रकार

उत्पत्ति के आधार पर वर्षा को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है-

1. संवहनीय वर्षा (Convectional Rainfall)

•इसकी उत्पत्ति गर्म एवं आर्द्र पवनों के ऊपर उठने से होती है। जब धरातल बहुत गर्म हो जाती है तथा उसके संपर्क में आने वाली पवनें गर्म होकर ऊपर उठती हैं तो वायु की संवहनीय धाराओं का निर्माण होता है। अधिक ऊँचाई पर पहुँचने के पश्चात् ऐसी संवहनीय धाराएँ ठण्डी होकर पूर्णतः संतृप्त हो जाती हैं, जिसके पश्चात् संघनन होने से काले कपासी वर्षा मेघ बनते हैं। तथा घनघोर वर्षा होती है। इस प्रकार की वर्षा को संवहनीय वर्षा कहते हैं। विषुवत रेखीय प्रदेश अथवा शान्त पेटी (डोलड्रम) में इस प्रकार की वर्षा होती है। उच्च तापमान एवं आर्द्रता के कारण इन क्षेत्रों में दोपहर 2 से 3 बजे के मध्य कपासी वर्षा मेघ छा जाते हैं। कुछ क्षणों की मूसलाधार वर्षा के बाद 4 बजे शाम तक वर्षा रुक जाती है।

2. पर्वतीय वर्षा (Orographic Rainfall)

जब जलवाष्प से युक्त गर्म वायु को किसी पर्वत या पठार की ढलान के साथ ऊपर चढ़ना होता है तो यह वायु रुद्धोष्म प्रक्रिया द्वारा ठंडी होने लगती है तथा धीरे-धीरे संतृप्त हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप संघनन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। संघनन के पश्चात् होने वाली इस प्रकार के वर्षा को पर्वतीय वर्षा कहते हैं। यह वर्षा उन क्षेत्रों में अधिक होती है, जहाँ पर्वत-श्रेणी समुद्र तट के निकट तथा उसके समानान्तर स्थित हो। विश्व की अधिकांश वर्षा इसी रूप में होती है।

ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ वर्षा की मात्रा भी घटती जाती है। इस प्रकार पर्वतीय क्षेत्र का जो ढाल पवन के सम्मुख होता है, वहाँ अधिक वर्षा होती है। इसे पवनाभिमुख ढाल (Windward Slope) कहते हैं। परन्तु, जैसे ही पवन पर्वत की दूसरी ढाल पर उतरने लगती है, रुद्धोष्म ताप वृद्धि के कारण वह गर्म और शुष्क होने लगती है। इस प्रकार पवन की सापेक्षिक आर्द्रता में कमी आ जाती है और वर्षा की मात्रा अत्यधिक कम हो जाती है। इसे पवनाविमुख ढाल (Leeward Slope) या वृष्टि – छाया प्रदेश (Rain Shadow Region) कहते हैं। भारत में पवनाभिमुख व वृष्टि – छाया प्रदेश का उदाहरण क्रमशः पश्चिमी घाट में स्थित महाबलेश्वर (वर्षा 600 सेमी.) और पुणे (वर्षा 70 सेमी.) है, जो एक दूसरे से मात्र कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित हैं।

 

3. चक्रवाती वर्षा वाताग्री वर्षा (Cyclonic Rainfall)

चक्रवातों के कारण होने वाली वर्षा को चक्रवाती वर्षा कहते हैं। इस प्रकार की वर्षा तथा हिमवृष्टि विशेषकर शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवाती क्षेत्रों में होती है। यहाँ गर्म एवं शीतल वायुराशियों के टकराने से भीषण तूफानी दशाएँ उत्पन्न हो जाती हैं तथा गर्म वायुराशि के शीतल वायुराशि के ऊपर चढ़ जाने की प्रक्रिया में संघनित होकर वर्षा करती है।

 

कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain)

  • कृत्रिम वर्षा को मेघों का कृत्रिम बीजारोपण भी कहा जाता है। इसका तात्पर्य वस्तुतः उस प्रक्रिया से है, जिसमें एक विशेष प्रकार के मेघों को संतृप्त करके वर्षा करायी जाती है।
  • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1946 ई. में अमेरिकी वैज्ञानिकों विंसेंट जे. शेफर एवं इरविंग लैंगम्यूर ने पश्चिमी मेसाच्युसेट्स के ऊपर 4,300 मी. की ऊँचाई पर वायुयान के द्वारा तीन किलोग्राम ठोस कार्बन डाईऑक्साइड (Dry Ice) का छिड़काव कर अतिशीतित मेघों के कृत्रिम बीजारोपण में सफलता प्राप्त की। परंतु यह प्रयास आंशिक रूप से ही सफल रहा तथा इनसे बहुत सीमित क्षेत्रों में कृत्रिम वर्षा की प्राप्ति संभव हो सकी। चूँकि यह अत्यधिक खर्चीली विधि थी इसलिए अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी।
  • 1946 ई. में ही बी. वॉनगुट ने सिल्वर आयोडाइड प्रविधि द्वारा कृत्रिम वर्षा हेतु प्रयास किया। उन्होंने पाया कि बहुत ऊँचे तापमान पर गर्म करने पर सिल्वर आयोडाइड वाष्पीकृत हो जाता है तथा शीतल होने पर इनसे सिल्वर आयोडाइड के अत्यंत सूक्ष्म कणों (व्यास 0.01 से 0.1 माइक्रॉन) का निर्माण हो जाता है, जो धुएँ के रूप में अति शीतित जल कणों से निर्मित मेघों में जमा हो जाते हैं।
  • ये – 5°C से निम्न तापमान पर अति सूक्ष्म आर्द्रताग्राही नाभिकों का कार्य करते हैं, जिन पर हिमकणों का निर्माण होता है।

निष्कर्ष

वर्षा हमारे जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसके विभिन्न प्रकार जैसे – जलवृष्टि, हिमवृष्टि, सहिम-वृष्टि, ओलावृष्टि और फुहार अलग-अलग परिस्थितियों में होते हैं। उत्पत्ति के आधार पर इसे संवहनीय, पर्वतीय और चक्रवाती वर्षा में बाँटा गया है। साथ ही, आवश्यकता पड़ने पर वैज्ञानिक तकनीक से कृत्रिम वर्षा भी कराई जा सकती है।

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