मृदा क्या है-मृदा पृथ्वी की सतह पर मौजूद वह प्राकृतिक परत है, जिसमें खनिज तत्व, जैविक पदार्थ, वायु और पानी पाए जाते हैं। इसके कारण ही पौधों का जीवन संभव हो पाता है। इसलिए, मृदा को धरती की उपजाऊ परत भी कहा जाता है।
इसके अलावा, मृदा कृषि, भूगोल, पर्यावरण और पारिस्थितिकी का सबसे महत्वपूर्ण आधार है।
मृदा की परिभाषा (Mirda Ki Paribhasha)
मृदा वह भुरभुरी, दानेदार और उपजाऊ सतही परत है, जो चट्टानों के विघटन, तापमान परिवर्तन और जैविक प्रक्रियाओं से बनती है। इसके अलावा, इसमें जीवाश्म, पोषक तत्व और सूक्ष्मजीव भी शामिल होते हैं, जो इसे अत्यधिक उपजाऊ बनाते हैं। साथ ही यह परत कृषि उत्पादन की आधारभूत तत्वों में से एक मानी जाती है।
मृदाओं का वर्गीकरण/प्रकार मृदा क्या है
भारत में अनेक प्रकार के उच्चावच,भू-आकृतियां,जलवायु और वनस्पतियां पाई जाती हैं इसी कारण अनेक प्रकार की मृदाएं विकसित हुई हैं।
1. चट्टानों का विघटन
सबसे पहले चट्टानें ताप, शीतलन, वर्षा और हवाओं से टूटती हैं। इसके कारण छोटे-छोटे कण बनते हैं।
2. जैविक पदार्थों का मिश्रण
धीरे-धीरे पत्तियाँ, जीव-जन्तु और सूक्ष्मजीव सड़कर कणों में मिलते हैं और ह्यूमस बनाते हैं।
3. हवा और पानी का प्रभाव
हवा और पानी लगातार कणों को इधर-उधर ले जाते हैं। इसके कारण मृदा का फैलाव और संरचना बदलती रहती है।
4. रासायनिक परिवर्तन
नमी और तापमान के कारण चट्टानों में रासायनिक क्रियाएँ होती हैं, जिससे अलग-अलग पोषक तत्व बनते हैं।
मृदा के मुख्य घटक (Soil Components)
मृदा कई प्राकृतिक तत्वों से मिलकर बनी होती है, जिनमें शामिल हैं:
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खनिज लवण
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महीन दाने
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वायु
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जल
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जैविक पदार्थ
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ह्यूमस
इसके अलावा, इसमें महत्वपूर्ण पोषक तत्व—नाइट्रोजन, पोटैशियम और फॉस्फोरस—भी पाए जाते हैं, जो पौधों के लिए आवश्यक हैं।
मृदा के प्रकार (Types of Soil) मृदा क्या है
मृदा क्या है अब आइए विभिन्न प्रकार की मृदा को सरल भाषा में समझते हैं:
जलोढ़ मृदा (Alluvial Soil) मृदा क्या है
यह मृदा विस्तृत रूप से फैली हुई है और यह जलोढ़ मृदा देश की महत्वपूर्ण मिट्टी है। हालांकि पूरे उत्तरी मैदान जलोढ़ मृदा से बने हैं, क्योंकि यह हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी तंत्र—सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र—द्वारा लाए गए निक्षेपों से निर्मित होते हैं। इसके अलावा, एक संकरे गलियारे के माध्यम से यह मृदा राजस्थान और गुजरात तक फैलती है। साथ ही, पूर्वी तटीय मैदान विशेषकर महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टा भी जलोढ़ मृदा से बने हैं। इसलिए, यह मृदा कृषि और जनजीवन दोनों के लिए अत्यंत उपजाऊ मानी जाती है। दूसरी ओर, इसकी संरचना स्थान के अनुसार बदलती रहती है और अंततः यह विविध फसलों के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान करती है।
जलोढ़ मृदा के प्रकार मृदा क्या है
कणों के आकार या घटकों के अलावा, मृदाओं की पहचान उनकी आयु से भी होती है। सबसे पहले, आयु के आधार पर जलोढ़ मृदाएं दो प्रकार की होती हैं—पुराना जलोढ़ (बांगर) और नया जलोढ़ (खादर)। इसके अलावा, बांगर मृदा में कंकर ग्रंथियों की मात्रा ज्यादा होती है, जबकि खादर मृदा में बांगर मृदा की तुलना में अधिक महीन कण पाए जाते हैं।
इसी कारण, जलोढ़ मृदा बहुत ही उपजाऊ मानी जाती है। साथ ही, अधिकतर जलोढ़ मृदा में पोटाश, फॉस्फोरस और चूना पर्याप्त मात्रा में मिलता है, जो गन्ने, चावल, गेहूं और अन्य अनाजों व दलहन फसलों की खेती के लिए अत्यंत उपयोगी है।
इसके परिणामस्वरूप, इन क्षेत्रों में गहन कृषि की जाती है और अंततः यहां जनसंख्या का घनत्व भी अधिक होता है।
काली मिट्टी (Black Cotton Soil) मृदा क्या है
इस मृदा का रंग काला होता है, इसलिए इसे काली मिट्टी कहा जाता है। साथ ही, इस मृदा को रेगर मृदा भी कहा जाता है। काली मृदा कपास की खेती के लिए अत्यंत उपयुक्त मानी जाती है और इसे काली कपास मृदा के नाम से भी जाना जाता है। माना जाता है कि जलवायु तथा जनक शैलों ने काली मृदा के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके अलावा, इस प्रकार की मृदा दक्कन पठार के बेसाल्ट क्षेत्रों के उत्तर-पश्चिमी भागों में पाई जाती है और लावा जनित शैलों से निर्मित होती है। यह मृदा महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठार में व्यापक रूप से मिलती है साथ ही, दक्षिण-पूर्व दिशा में गोदावरी और कृष्णा नदियों की घाटियों तक फैली होती है।
काली मृदा बहुत ही महीन कणों यानी मृतिका से बनी होती है। फलस्वरूप, इसकी नमी धारण करने की क्षमता काफी अधिक होती है। इसके बावजूद, यह मृदा कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूने जैसे पोषक तत्वों से भरपूर होती है, जबकि फास्फोरस की मात्रा अपेक्षाकृत कम पाई जाती है। गर्म और शुष्क मौसम में इस मृदा में गहरी दरारें बन जाती हैं, जिससे वायु का अच्छा संचरण हो जाता है। गीली अवस्था में यह अत्यधिक चिपचिपी हो जाती है और इसे जोतना कठिन साबित होता है। इसलिए, इसकी जुताई मानसून आने से पहले शुरुआती बौछार पड़ते ही शुरू कर दी जाती है।
लाल मिट्टी (Red Soil)
लाल मृदा दक्कन पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में रवेदार आग्नेय चट्टानों पर कम वर्षा वाले भागों में विकसित हुई है। इसके अलावा, लाल और पीली मृदा उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा मैदान के दक्षिणी छोर पर और पश्चिमी घाट में पहाड़ी पद पर पाई जाती हैं। साथ ही, इन मृदाओं का लाल रंग रवेदार आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों में लौह धातु के प्रसार के कारण होता है। हालांकि, इनका पीला रंग जलयोजन की प्रक्रिया से बनता है। परिणामस्वरूप, दोनों प्रकार की मृदा में खनिजों का अंतर स्पष्ट दिखाई देता है। इसी तरह, वर्षा की मात्रा भी इनके रंग और संरचना पर गहरा प्रभाव डालती है। अंत में, यह कहा जा सकता है कि लाल और पीली मृदा का निर्माण जलवायु और चट्टान संरचना के संयुक्त प्रभाव से होता है।
दोमट मिट्टी (Loamy Soil)
यह रेत, चिकनी मिट्टी और गाद का संतुलित मिश्रण है। इसलिए, यह खेती के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।
लेटराइट मृदा
लेटराइट शब्द ग्रीक भाषा के लेटर शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ ईंट होता है। यह मृदा उच्च तापमान और अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में विकसित होती है। इसके अलावा, यह भारी वर्षा से होने वाले अधिक निक्षालन का परिणाम होती है। जबकि इस मृदा में नमी की मात्रा कम पाई जाती है, इसका मुख्य कारण अत्यधिक तापमान है, क्योंकि इससे जैविक पदार्थों को अपघटित करने वाले बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं। इसलिए, लेटराइट मृदा पर खेती करने के लिए अधिक मात्रा में खाद और रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करना आवश्यक होता है।
साथ ही, यह मृदा मुख्य रूप से कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में पाई जाती है। मृदा संरक्षण की दृष्टि से देखा जाए तो कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में चाय और कॉफी की खेती की जाती है। दूसरी ओर, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल की लाल लेटराइट मृदाएं काजू की फसल के लिए अधिक उपयोगी मानी जाती हैं। अंततः, यह मृदा भारत की कृषि विविधता में महत्वपूर्ण योगदान देती है।
मरुस्थली मृदा
मरुस्थली मृदाओं का रंग लाल और भूरा होता है। इसके अलावा, यह मृदा आमतौर पर रेतीली और लवणीय होती है। कई क्षेत्रों में नमक की मात्रा इतनी अधिक होती है कि झीलों से जल वाष्पीकृत करके खाने का नमक भी बनाया जाता है। साथ ही, शुष्क जलवायु और उच्च तापमान के कारण जलवाष्पन दर अधिक रहती है, इसलिए मृदा में ह्यूमस और नमी की मात्रा बहुत कम पाई जाती है। इसके अतिरिक्त, मृदा की सतह के नीचे कैल्शियम की मात्रा लगातार बढ़ती जाती है और अंततः नीचे की परतों में चूने के कंकर की सतह दिखाई देती है। इसी कारण मृदा में जल का स्यंदन अवरुद्ध हो जाता है। हालांकि, इस मृदा को सही तरीके से सिंचित करके कृषि योग्य बनाया जा सकता है, जैसा कि पश्चिमी राजस्थान में सफलतापूर्वक हो रहा है।
वन मृदा/पर्वतीय मृदा
यह मृदा आमतौर पर पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है, इसके अलावा जहाँ पर्याप्त वर्षा और वन उपलब्ध होते हैं। इसी कारण इन मृदाओं के गठन में पर्वतीय पर्यावरण के अनुसार बदलाव आता है। नदी घाटियों में ये मृदाएं दोमट और सिल्टदार होती हैं, लेकिन ऊपरी ढालों पर इनका गठन मोटे कणों का होता है। हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों में इन मृदाओं का बहुत अपरदन होता है और ये अधिसिलिक तथा ह्यूमस रहित होती हैं। साथ ही, नदी घाटियों के निचले क्षेत्रों में, विशेषकर नदी सोपानों और जलोढ़ पंखों में, ये मृदाएं उपजाऊ होती हैं। अंत में, बेहतर वर्षा और पोषक तत्वों की उपलब्धता इनके उर्वरक स्वरूप को और प्रबल बनाती है।
मृदा का महत्व (Importance of Soil) मृदा क्या है
मृदा हमारे जीवन के हर क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उदाहरण के लिए:
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कृषि मृदा पर निर्भर है
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वनस्पतियाँ मृदा से पोषण प्राप्त करती हैं
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निर्माण कार्यों में मृदा का उपयोग होता है
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जीव-जंतु मृदा में रहते हैं या उसका उपयोग करते हैं
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पर्यावरणीय संतुलन मृदा से ही संभव है
इसके अलावा, मृदा जल संरक्षण और भूमिगत जल स्तर बनाए रखने में भी मदद करती है।
मृदा संरक्षण क्यों आवश्यक है? (Soil Conservation) मृदा क्या है
भूमि क्षरण लगातार बढ़ रहा है। इसलिए, मृदा संरक्षण जरूरी है।
इसके लिए कई तरीके अपनाए जाते हैं, जैसे—कंटूर खेती, वनीकरण, वर्षा जल संग्रहण और ढलान पर सीढ़ीनुमा खेती।
Conclusion :मृदा क्या है
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