जगदीश चंद्र बोस का जीवन परिचय
नमस्कार दोस्तों आप सभी लोगों का स्वागत है Hindi-khabri.in में। दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि जगदीश चंद्र बोस का जीवन परिचय के बारे में जानेंगे तो दोस्तों आइए बिना देर किए हम जानते हैं जगदीश चंद्र बोस के जीवन परिचय के बारे में।
जगदीश चंद्र बोस का जीवन परिचय
जगदीश चंद्र बोस का जन्म 30 नवंबर 1858 को भारत के मैमनसिंह जिले में हुआ,जो आज के वर्तमान समय में बांग्लादेश में है।यहां इनके पिता डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। इनके पिता का नाम भगवान चंद्र बोस तथा माता का नाम वामा सुंदरी बोस था।इनके जीवन पर पिता के उदारतापूर्ण व्यवहार का काफी प्रभाव पड़ा, जिसे उन्होंने अंत तक निभाया। उनका परिवार एक सुशिक्षित एवं धार्मिक विचारों वाला परिवार था जिसमें रामायण और महाभारत पढ़े जाते थे।उन्हें कर्ण के जीवन से बहुत प्रेरणा मिली,जिसके आधार पर उन्होंने जीवन में संघर्ष करते रहना सीखा।जगदीश चंद्र बोस हार से ही विजय का जन्म होना मानते थे।
शिक्षा
उनके पिता ने उन्हें अंग्रेजी माध्यम की बजाय हिंदी की जानकारी रखने पर ज्यादा बल दिया।उन्होंने बालक बोस को हिंदी स्कूल में दाखिला कराया, क्योंकि उनका कहना था कि पहले मातृभाषा का ज्ञान होना जरूरी है,बाद में अन्य भाषाओं का।
स्कूल में जगदीश चंद्र बोस के अधिकांश मित्र गरीब और पिछड़ी जाति के बच्चे थे।बोस को प्रायः उनके परिवार के लोगों के बारे में ख्याल आ जाता।उनका मानना था कि आदमी परिश्रम में से ही ऊंचा होता है,धन से या जाति से नहीं।मनुष्य बलहीन तो आत्मबल के गिरने अथवा नष्ट होने से होता है।
जगदीश चंद्र बोस जब अनमने-से होते तो वे बालक उन्हें कहानी, चुटकुले सुनाकर मन बहला देते। इस पर वे उनके साथ खूब घुल-मिल जाते।बालक बोस मन- ही-मन अपने साथियों की बातों का चिंतन करते रहते और उनके आंतरिक भावों को समझते रहते थे।
प्रारंभिक अध्ययन के उपरांत बोस ने अपनी 9 वर्ष की अल्पायु में कोलकाता के हेयर स्कूल तथा बाद में सेंट जेवियर स्कूल में दाखिला लिया। सेंट जेवियर स्कूल में यूरोपीय तथा भारत में रह रहे अंग्रेज छात्र पढ़ते थे। उनका साथ पाकर बोस का मन उदास रहने लगा, परंतु उन्होंने उनसे मित्रता कर ली। उन्हें अपने सहपाठियों की कई भ्रांत भावनाओं व चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा,किंतु उनके आत्मविश्वास व उनके परिश्रम के रंग ने उन्हें अंग्रेज छात्रों के समक्ष कभी कमतर नहीं होने दिया। वे हर व्यक्ति की प्रकृति(स्वभाव)के बारे में गंभीरतापूर्वक सोचते रहते।खाली समय में तो वे विज्ञान की चीजों के बारे में भी मशगूल हो जाते।
जगदीश चंद्र बोस सन 1880 में उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए। वहां उन्होंने चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन शुरू किया ही था कि उनका स्वास्थ्य अचानक बिगड़ गया और पढ़ाई छूट गई। फिर वह कैंब्रिज में क्राइस्ट चर्च कॉलेज में प्रकृति विज्ञान के अध्ययन में जुट गए।यहां के दो अध्यापकों ने उनका मार्गदर्शन किया।ये अध्यापक प्रकृति विज्ञानी प्रोफेसर सिडनी विनिस और भौतिक विज्ञानी लॉर्ड रैले थे।
अध्यापन कार्य
जगदीश चंद्र बोस सन 1885 में शिक्षा पूरी कर भारत लौट आए। उन्हें कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिकी का प्राध्यापक नियुक्त कर दिया गया। वहां उन्हें अंग्रेजी प्राध्यापकों की तुलना में आधे से भी कम वेतन मिलता था।उन्होंने अवैतनिक शिक्षा प्रोफेसर के रूप में इसका विरोध किया।जब इस बात का कॉलेज के अंग्रेज मुख्याध्यापक को पता चला तो शीघ्र ही उनका पूरा वेतन कर दिया गया और उन्हें उन तीन वर्षों का भी पूरा वेतन दिया गया जिनमें उन्होंने अध्यापन कार्य तो किया था,किंतु वेतन नहीं लिया था ।यह उनका एक अनोखा संघर्ष था ।वे जीवन के संकटों का समय-समय पर मुकाबला करते रहे।सन् 1913 में बोस ने भारतीय लोक सेवा आयोग के समक्ष भारतीय लोगों के साथ होने वाले पक्षपातों का खुला विरोध किया।अनेक लोगों ने भी उनका पूरा साथ दिया,इससे उनके इस विरोध को पूरा बल मिला।सरकार ने उनकी बात पर अमल किया।
शोध कार्य
इसके बाद उन्होंने रॉयल सोसाइटी के शरीर क्रिया विज्ञानियो से भी संघर्ष किया, जिसमें उनकी ही विजय हुई। इसके लिए जगदीश चंद्र बोस ने दो वर्ष कड़ी मेहनत करके ‘रिसपान्स इन द लिविंग एंड नान लिविंग’ नामक मोनोग्राफ छपवाया जिसे देखकर आलोचक विज्ञानी हतप्रभ रह गए।शेष अप्रकाशित भाषण बाद में प्रकाशित करके सभी देशों में भेजा गया।सभी देश के विद्वान वैज्ञानिकों ने भी श्री बोस को आदर्श वैज्ञानिक माना।पौधों के क्रिया विज्ञान पर अनेक देशों में शोध कार्य शुरू कर दिए गए। इससे उनकी ख्याति बढ़ने लगी। और उन्हें रॉयल सोसाइटी ने अपना सदस्य बना लिया।यह घटना सन् 1920 की है।
जगदीश चंद्र बोस का विवाह
उनका विवाह सन 1887 के जनवरी माह में अगला दास के साथ हुआ था।वह प्रसिद्ध वकील दुर्गा मोहनदास की पुत्री थी।उनके भाई देशबंधु चितरंजनदास थे वे विवाह के समय मद्रास मेडिकल कॉलेज में चिकित्सा शास्त्र का प्रशिक्षण ले रही थी किंतु उनकी जीवन संगिनी बनने के लिए उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी।विवाह के पश्चात उन्होंने उनके सुख-दुख में बराबर का साथ दिया।वैवाहिक जीवन में इस दंपत्ति को एक झटका लगा। उनकी प्रथम नवजात शिशु की मृत्यु हो गई।अबला एक सुच्चरित्रा, समाज-सेविका एवं परिश्रमी महिला थी।उन्होंने बंगला स्त्रियों और बच्चियों को शिक्षित करने के लिए ‘नारी समर्पित’ नामक संस्था भी स्थापित की। बोस ने सन् 1885 में विवाह से दो वर्ष पूर्व यह सिद्ध कर दिया था कि वायरलैस की तरंग और संचरण का वायुमंडल में क्या अस्तित्व है?उन्होंने यह प्रयोग अपनी निजी प्रयोगशाला में किया था।
विद्युत तरंग पर शोध
विद्युत चुंबकीय तरंगों पर इंग्लैंड में ओलिवियर लाज तथा जर्मनी में हिनरिच हर्ट्ज नामक वैज्ञानिकों ने भी शोध किए थे। बाद में उन तरंगों का नाम ‘हर्टिजियन तरंगे’ रख दिया गया।बोस ने इसके पश्चात शॉर्ट रेडियो तरंगों की खोज की।उन्होंने तरंगों पर मापन मि.मी स्तर पर नापा, जबकि लॉज ने सेंटीमीटर तथा र्ह्ट्ज ने डेसीमीटर पर कार्य शुरू किया था।
बोस ने पटसन के सूक्ष्म रेशों जैसी सूक्ष्म सामग्री से विद्युत तरंगों के ध्रुवण को ग्रहण करने वाले उपकरण बनाने में भी सफलता प्राप्त की।उनकी सहायता से विघुत उपकरण रिसीवर तैयार किया गया था,जो ‘कोहेरर’ (विधुतज्ञापी यत्र) कहा जाता था।इस यंत्र से व्यापारियों को काफी लाभ पहुंचा।यह रिसीवर समुद्री जहाजों पर भी कार्यसिद्ध हुए थे।
बोस के समय मार्कोनी ने भी अंग्रेजों और यूरोपीय वैज्ञानिकों के सहयोग से लंबी दूरी तक रेडियो तरंगे भेजने वाला यंत्र बना लिया था।बोस का बेतार का यह आविष्कार सन् 1885 में कोलकाता ‘नगर भवन’ में पुष्टिपूर्ण शुद्ध कार्य मान लिया गया।उन्होंने यह कार्य अपने स्वनिर्मित उपकरण से विद्युत तरंगों को दो कमरों की दीवार पार्क करके तीसरे कमरे में पहुंचकर एक तोप, एक पिस्तौल चलाकर बारूद के ढेर में विस्फोट करके दिखाया।
उन्होंने सन् 1886 में विद्युत तरंगों का आकार निकालने के लिए एक पेज लिया जिस पर बारीक तीन रेखाएं खींची गई,फिर पेज से विवर्तन जाली से दैर्ध्य निकालने के लिए प्रकाश किरणों का परावर्तन कराकर प्रतिबिंब प्रदर्शित किया गया। उन्होंने इस परीक्षण में पूर्ण सफलता प्राप्त कर ली। बोस को अपनी इस अद्वितीय सफलता से बहुत खुशी हुई।फिर वह विज्ञान के अन्य शोध कार्य करने लगे। उन्होंने शार्ट वेव विकिरण क्षेत्र में अध्ययन आरंभ कर दिया।उनके सैद्धांतिक शोधों की लंदन विश्वविद्यालय में काफी चर्चा हुई। उन्होंने अपना एक शोध लेख तैयार किया।जिसे रॉयल सोसाइटी को प्रकाशनार्थ दे दिया। ऐसा उत्कृष्ट लेख लिखने पर इन्हें वहां के विश्वविद्यालय ने डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि प्रदान की।
सन् 1894 में जब वे 36 वर्ष के थे तो हिनरिच हटर्ज और ओलिवियर लॉज जैसे वैज्ञानिकों के लेखो ने उन्हें काफी प्रभावित किया था। उन्होंने पौधों के अध्ययन पर अनेक उपकरण बनाए थे।उन्होंने जीव विज्ञान के अलावा भौतिक विज्ञान पर भी शोध कार्य किए थे।
यूरोप में सम्मान
सन 1896 में बोस यूरोपीय वैज्ञानिकों के निमंत्रण पर इंग्लैंड गए ।उनके शोधपूर्ण भाषण और कार्यों की प्रशंसा करते हुए ‘फ्रेंच अकादमी ऑफ साइंस’ के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर ए. कोर्नू ने कहा – ‘आपको अपनी प्रजाति की परंपरा को पुनर्जीवित करने का प्रयास करना चाहिए, जो विज्ञान और कला की मशाल थी। फ्रांस में हम सब आपकी प्रशंसा करते हैं और उत्तरोत्तर उन्नति करते रहने की कामना भी।’
बोस कोहेररो (रिसीवरों) के शोध कार्य में जुट गए।उन्हें इस कार्य में अपनी विद्युत-तरंगों में कुछ शिथिलता महसूस हुई। उन्हें लगा इससे उस प्रवाह में कमी होकर उनकी संवेदनशीलता नष्ट हो सकती है।यह शिथिलता जीवो में भी मांसपेशियों जैसी है।इस परीक्षण के लिए उन्होंने एक उपकरण ‘कृत्रिम रेटिना’ अर्थात कृत्रिम पटल तैयार किया। रेटिना आंखों का एक बहुत नाजुक पर्दा है।उन्होंने जब यह सारा प्रयोग किया तो उनकी दृष्टि अपने ग्राफ पर डाक्टर वालर की तरह प्राप्त हुई वक्र रेखा पर पड़ी।उन्होंने निर्जीव वस्तुओं पर रासायनिक क्रिया करके प्रयोग की संपुष्टि की।टिन धातु पर हुई प्रतिक्रिया से उन्हें विश्वास हुआ कि निर्जीव धातु एवं सजिव प्राणियों की सीमा रेखा बहुत नाजुक है तथा सजीव पदार्थों एवं निर्जीव वस्तुओं में कोई अधिक अंतर नहीं है।
उनके अनुसार जीवित पदार्थों की विद्युत प्रकृति है,क्योंकि शरीर पर पड़ने वाली हल्के दर्द की सूचना तंत्रिकाओं के माध्यम से विद्युत की तरह मस्तिष्क में पहुंचती है। ठीक इसी तरह अन्य जीव-जंतुओं में भी मस्तिष्क मांसपेशियां एवं हृदय विद्युत संकेतों में आधार प्राप्ति पर ही कार्य करते हैं। सन् 1900 के जुलाई माह में पेरिस के इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ फिजिक्स में वैज्ञानिकी के समक्ष अपना प्रयोग सिद्ध करने के बाद उनकी इच्छा हुई कि कृत्रिम रेटिना को बेतार संचार (वायरलेस टेलीग्राफी) में व्यवसायिक प्रयोग के लिए पेंटेट कराया जाए,परंतु कुछ वैज्ञानिकों के विरोध के कारण यह प्रस्ताव माना नहीं गया।इस समय इस सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद भी मौजूद थे। इन्होंने बोस को भारत का महान सपूत कहकर सम्मानित किया था।
लंदन में प्रयोग परीक्षण के दौरान भाषण
10 मई 1901 को लंदन में रॉयल सोसायटी ऑफ़ साइंस हॉल में बोस अपना पेड़-पौधों की संवेदनशीलता का प्रयोग दिखा रहे थे।पौधों की जड़े ब्रोमाइड अम्ल में डूबीं थी। उपकरण पौधे से जुड़ा था कि प्रतिक्रिया होते ही स्क्रीन पर हल्के धब्बे दिखने लगे जिनसे पौधो की संवेदनशीलता जाहिर हो रही थी। पौधे की नब्ज की धड़कन, जिसे वह बिंदु पहले घड़ी के पेंडुलम की नियमितता से आगे-पीछे अंकित कर रहा था, धीरे-धीरे अनियमित और असंतुलित होती चली गई और वह धब्बा तीव्रता से हिलने लगा, फिर अचानक ही थोड़े समय बाद उसकी सभी प्रक्रियाएं शून्य हो गई तथा वह पौधा मर गया।यह प्रयोग देखकर सभी वैज्ञानिक और दर्शक आश्चर्य में डूब गए। बोस के शोधपूर्ण विवेचन कार्य की प्रशंसा कर उठे।
इस अवसर पर बॉस ने सोसाइटी से कहा-‘यदि वह लेख से संतुष्ट नहीं है तो मेरे इस लेख को प्रकाशित ना किया जाए,क्योंकि मैं इसमें जरा भी परिवर्तन करने को तैयार नहीं हूं।’
बोस ने आगे कहा- ‘मैंने तीन हजार वर्ष पूर्व से पूर्वजों के संदेश को गंगा तट पर समझा है। संसार की परिवर्तनशील अनेकता में मात्र एक को देखने वाला ही सनातन सत्य का जाने वाला ज्ञानी होता है।’
उनका यह भाषण सुनते ही भौतिक विज्ञानी सर रॉबर्ट ऑस्टिन ने कहा- ‘मुझे यह जानकर बहुत खुशी हुई कि धातुओं में भी जीवन होता है , मुझे यह ज्ञान नहीं था।’
बोस के भाषण को समझ ना पाने से कुछ वैज्ञानिकों ने उनका मजाक भी उड़ाया और कहा कि- ‘यह व्यक्ति पूर्व देशीय मस्तिष्क की मनगढ़ंत बातें करता है।’
जीव-जंतुओं एवं पौधों के हृदय की क्रिया को जानने के लिए उन्होंने अनेक सहायक स्वचालित रिकार्डरों के आविष्कार किए। बोस का कहना था- ‘आविष्कार एवं निर्माण की शक्ति विज्ञान की समस्याओं से संघर्ष करने पर विकसित नहीं होती और न हीं यह आवश्यक है कि वैज्ञानिक ज्ञान हेतु स्कूल से परीक्षाएं पास की जाए।
बोस शोध संस्थान की स्थापना एवं उनकी अंतिम इच्छा
30 नवंबर 1917 को ‘बोस शोध संस्थान’ के अवसर पर कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने संस्थान पर काव्यगीत प्रस्तुत किया था।इस अवसर पर बोस ने आगंतुकों से स्वराष्ट्र को विकसित राष्ट्र बनाने बनाए जाने की बात पर बल दिया। उन्होंने घोषणा की- ‘हमें पश्चिमी देशों को छोड़कर अपना मूल तथ्य को नहीं गवाना चाहिए। देश के नए अविष्कार ही भविष्य की पूंजी है।मैं इसके जीवित रखने के लिए राष्ट्र की मान्यताओं को ही बल और स्थान दूंगा।इसके लिए मैं चाहता हूं कि समस्त वैज्ञानिकों द्वारा इस संस्थान को सहयोग दिया जाए व इसे विकसित किया जाए,ताकि उन्हें अपने शोध कार्य में नया संबल मिले,नए अनुसंधान कार्यों की जानकारी मिले तथा अभावों को समझकर वे एक-दूसरे की समस्याओं का समाधान कर सके।संस्थान में समस्त सुविधाएं उपलब्ध हो जिससे विदेशी वैज्ञानिक अपना गर्व भुला सके।’ बोस ने यह भी कहा- ‘वैज्ञानिकों का शोध उनका निजी महत्व बढ़ाना नहीं,बल्कि मानव को संसाधनों के जरिए लाभ पहुंचाना होता है।’ संस्थान के समारोह की समाप्ति पर उसे सरकार एवं जन सहयोग से काफी राशि प्राप्त हुई। इसके उपरांत संस्थान द्वारा समय-समय पर लेख निकाले गए जिनमें उसकी नियमित कार्यप्रणाली व नए शोधों का सजीव चित्रण किया जाता था। इसके अलावा उनकी घोषणा भी विदेशी वैज्ञानिकों के समक्ष प्रदर्शित की जाती रही।
सम्मान एवं निधन
जगदीश चंद्र बोस को डॉक्ट्रेट की अनेक उपाधियां मिलीं।उन्हें अनेक देशों के विज्ञान संस्थानों का सदस्य बनाया गया।उनकी 23 नवंबर 1937 को मधुमेह एवं रक्तचाप की बीमारियों से पीड़ित होने के कारण मृत्यु हो गई।उस समय वो 79 वर्ष के थे।
निष्कर्ष
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