भक्ति का अर्थ एवं स्वरूप
नमस्कार दोस्तों आप सभी का स्वागत है Hindi-khabri.in में। दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि भक्ति का अर्थ एवं स्वरूप के बारे में जानेंगे|और भक्ति का अर्थ और स्वरूप और भक्ति के विभिन्न साधन के बारे में जानेंगे और इसके अलावा भक्ति के विभिन्न रूप आदि के बारे में इस आर्टिकल में जानेंगे तो दोस्तों आई हम बिना देर किए भक्ति का अर्थ एवं स्वरूपआर्टिकल का शुरुआत करते हैं।
भक्ति का अर्थ एवं स्वरूप-भक्ति शब्द से हम सभी लोग भली-भांति परिचित हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्ति काव्य को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इस युग को साहित्य के इतिहास का स्वर्ण युग भी कहा गया है जिसने कबीर,रैदास,सूरदास,मीरा, जायसी,तुलसीदास जैसे महान कवि हिंदी साहित्य को दिये हैं। भक्ति साहित्य में केवल ईश्वर की आराधना,प्रार्थना और लीला गान ही नहीं है।इसके अलावा भी बहुत कुछ है आइए हम भक्ति के अर्थ को समझते हैं।
भक्ति का अर्थ
धर्म के क्षेत्र में तीन मार्ग बताए गए हैं:भक्ति और कर्म ज्ञान का संबंध ईश्वर संबंधी तत्वचिंतन से है जबकि भक्ति का संबंध ईश्वर के प्रति निष्ठा और प्रेम द्वारा उसकी प्राप्ति से है।कर्म का संबंध उन आचारों-विचारों से है,जिनका पालन करके व्यक्ति अपने को ईश्वर की प्राप्ति के योग्य बनाता है।ईश्वर की प्राप्ति का एक अन्य मार्ग योग भी बताया गया है जिनमें कठोर साधना और तपस्या पर बल दिया गया है।
भक्ति शब्द की निष्पत्ति “भज” धातु से हुई है,जिसका अर्थ है सेवा करना।लेकिन इसका अर्थ सिर्फ सेवा शब्द तक ही सीमित नहीं है।भक्ति में ईश्वर का भजन, पूजा,प्रीति और अर्पण भी शामिल है।दूसरे शब्दों में भक्ति ईश्वर के प्रति भक्ति के प्रेम की अभिव्यक्ति है।नारद रचित भक्ति सूत्र में भक्ति की यही परिभाषा दी गई है।
सा तवस्मिन परमप्रेमरूपा
अमृतस्वरूपा च
अर्थात वह भक्ति भगवान के प्रति परम प्रेम रूपा है और अमृत स्वरूपा हैं।कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर के प्रति परम प्रेम और जिसका स्वरुप अमृत के समान हो उसे ही भक्ति कहा गया है।
शाण्डिल्य रचित भक्ति सूत्र के अनुसार “सा परानुरक्तिरीश्वरे” अर्थात् ईश्वर के प्रति गहरे प्रेम की अभिव्यक्ति का ही दूसरा नाम है। ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम पर बल देने के कारण ही भक्ति ईश्वर प्राप्ति के अन्य मार्गो से भिन्न हो गई है।ज्ञान,कर्म और योग में प्रेम को केंद्रीय महत्व प्राप्त नहीं है। दूसरे धर्म का जो कर्मकांडीय रूप है,उसको भी भक्ति में अस्वीकार किया गया है।नारद के “भक्ति सूत्र” में इसीलिए कहा गया है, “उस परम प्रेमरूपा और अमृत स्वरूपा भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सिद्ध हो जाता है,अमर हो जाता है और तृप्त हो जाती है। उस भक्ति को प्राप्त करने के बाद मनुष्य को न किसी भी वस्तु की इच्छा रहती है न वह शोक करता है,न वह द्वेष करता है,न किसी वस्तु में ही आसक्त होता है।उस प्रेमरूपा भक्ति को प्राप्त करके वह प्रेम में उन्मत हो जाता है।”
भक्ति पर लौकिक दृष्टि से विचार करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने प्रेम और श्रद्धा के योग को भक्ति कहा है।इसकी व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि “जब पूजा भाव की वृद्धि के साथ श्रृद्धा-भाजन के सामीप्य लाभ की प्रवृत्ति हो,उसकी सत्ता के कई रूपों के साक्षात्कार की वासना हो,तब हृदय में भक्ति का प्रादुभाव समझना चाहिए।जब श्रद्धेय के दर्शन,श्रवण,कीर्तन ध्यान आदि में आनंद का अनुभव होने लग-जब उससे संबंध रखने वाले श्रद्धा के विषयों के अलावा बातों की ओर भी मन आकर्षित होने लगे,तब भक्ति-रस का संचार समझना चाहिए।”
शुक्ल जी के मत से स्पष्ट है कि भक्ति में भक्त ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम ही अनुभव नहीं करता बल्कि उसके प्रति पूज्य भाव भी रखता है।उसे अपना उद्धारकर्ता, पालनहार और मार्गदर्शक भी मानता है।
भक्ति का स्वरूप
भक्ति को ईश्वर की प्राप्ति का सबसे सुगम साधन माना गया गया है।कहा गया है कि कलियुग में केवल ईश्वर के नाम स्मरण से ही भक्त ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।वस्तुत: स्मरण,भजन, कीर्तन,श्रवण,ध्यान आदि भक्ति के ही विभिन्न मार्ग है।नारद विरचित भक्ति सूत्र में कहा गया है कि भक्ति कामना युक्त नहीं है क्योंकि वह निरोध स्वरूप है।शास्त्रों के अनुसार निरोध का अर्थ है-लैकिक-वैदिक समस्त व्यापारो का प्रभु में न्यास कर देना,प्रियतम भगवान में अनन्यता और प्रतिकूल विषयों से उदासीनता। तात्पर्य यह है की भक्ति में भक्त जो कुछ भी कर्म करता है वह ईश्वर को ही अर्पित होता है।
उसके लिए शास्त्रीय विधानो और लौकिक कर्मों का कोई महत्व नहीं है।इसलिए नारद के भक्ति सूत्र में कहा गया है “वह प्रेमरूपा भक्ति कर्म,ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है,क्योंकि वह फलरूपा है अर्थात् उसका कोई अन्य फल नहीं है, वह स्वयं ही फल है।”भक्ति का स्वरूप स्पष्ट करते हुए इसी भक्ति सूत्र में कहा गया है, “प्रेम का स्वरूप और अनिर्वचनीय है-गूगे के स्वाद की तरह।वह प्रेम गुणरहित है,कामना रहित है, प्रतिक्षण बढ़ता रहता है,विच्छेद रहित है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है और अनुभवरूप है।उसे प्रेम को प्राप्त करके प्रेमी उस प्रेम को ही देखता है,प्रेम को ही सुनता है, प्रेम का ही वर्णन करता है और प्रेम का ही चिंतन करता है अर्थात् अपनी मन-बुद्धि इंद्रियों से केवल प्रेम का ही अनुभव करता हुआ प्रेममय हो जाता है।
” भक्ति के स्वरूप पर विचार करते हुए आचार्य शुक्ल ने बताया है की भक्ति किसी सांसारिक व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है जिसके प्रति हमारे मन में पूज्य और प्रेम दोनों भाव हो। भक्ति के इस लौकिक भाव का उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं।शुक्ल जी ने ईश्वरीय व्यक्ति का स्वरूप भी विवेचित किया है।उनके अनुसार भक्ति का स्थान मानव-हृदय है-वही श्रद्धा और प्रेम के संयोग से उसका प्रादुर्भाव होता है।
अतः मनुष्य की श्रद्धा के जो विषय ऊपर कहे जा चुके हैं उन्हीं को परमात्मा में अत्यंत विशद स रुप में देखकर उसका मन खिचता है और वह उस विशेद-रूप-विशिष्ट का सामीप्य चाहता है,उसके हृदय में जो सौंदर्य का भाव है,जो शील का भाव है,जो उदारता का भाव है;जो शक्ति का भाव है उसे वह अत्यंत पूर्ण रूप में परमात्मा में देखता है और ऐसे पूर्ण पुरुष की भावना से उसका हृदय गदगद हो जाता है और उसका धर्मपथ आनंद से जगमगा उठता है।
भक्ति के विभिन्न साधन
भागवत पुराण में भक्ति के नौ प्रकार के साधनों का उल्लेख है-
श्रवण,कीर्तन,स्मरण,पादसेवन, अर्चना,वंदना,दास्य, संख्य,तथा आत्मनिवेदन या शरणागति।
श्रवण
श्रवण श्री भगवान के नाम,गुण और लीलाओं का सुनना श्रवण कहलाता है। पुराणों में कहा गया है कि ईश्वर के नाम,गुण और लीलाओं का श्रवण करके मनुष्य भव-पाश से छुटकारा पा जाता हैं।
कीर्तन
कीर्तन व्याख्यान,प्रवचन, स्तवन,स्त्रोतपाठ कथा ये सब कीर्तन के ही अनेक रूप है।विष्णु पुराण में कहा गया कि सत्ययुगा में प्राणायाम,प्रत्याहार आदि जटिल अंगों वाले ध्यान के अवलंबन से जीव को जो सद्गति प्राप्त होती है,त्रेता में यज्ञों द्वारा यजन करने से जो सद्गति प्राप्त होती है एवं द्वापर में प्रचुर धन- साध्य मंदिर निर्माण और मूर्ति स्थापना के अनन्तर नानाविध उपचारों द्वारा पूजा-अर्चना से जो सद्गति प्राप्त होती है एवं द्वापर मे प्रचुर धन-साध्य मंदिर निर्माण और मूर्ति स्थापन के अनन्तर नानाविध उपचारो द्वारा पूजा-अर्चना से जो सद्गति प्राप्त होती है, वही सद्गति कलियुग में भगवान केशव के नाम गुण कीर्तन से ही प्राप्त हो जाती है।
स्मरण
स्मरण भगवान के नाम,गुण और लीलाओं का स्मरण करना। गरुड़ पुराण के अनुसार जो गुरुतर पाप अनेकानेक बार गंगाजल में और पुष्कर जल में स्नान करने से नष्ट होता है वह भगवान के स्मरण मात्र से नष्ट हो जाता है।
पादसेवन
पाद सेवन(चरण-सेवा) पुराणों के अनुसार प्रभु के चरणों की सेवा जो लक्ष्मी का आदर्श है उससे सभी पाप विच्छिन्न हो जाते हैं।
अर्चना
अर्चना पूजा अर्चना उपासना की प्राचीन विधि है तथा पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु की पूजा करने से पूजन के सब पाप दूर हो जाते हैं।
वंदना
वंदना भगवान की वंदना करना अर्थात प्रणाम करना। महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है कि जो भक्तजन नीलवर्ण, पीतांबरधारी,अच्युत गोविंद की वंदना करते हैं उन्हें किसी प्रकार का डर नहीं होता है।
दास्य
दास्य अपने को भगवान का दास (सेवक) समझना अर्थात ईश्वर के प्रति सेवा भाव। तुलसीदास की भक्ति में दास्य भाव की प्रधानता है।
सख्य
सख्य ईश्वर को अपना सखा, मित्र समझना।अर्जुन सख्य भाव के आदर्श है और सूरदास के काव्य में सख्य भाव की प्रधानता है।
आत्मनिवेदन
आत्मनिवेदन ईश्वर के चरणो मे अपने को पूर्णतः समर्पित कर देना अर्थात् उनके शरण में चले जाना ही आत्म निवेदन या शरणागति है। भक्ति का यह प्रमुख साधन रहा है।
भक्ति के विभिन्न रुप
भक्ति काल के दौर में भक्तों और भक्त कवियों ने ईश्वर के प्रति अपनी भावना की अभिव्यक्ति ईश्वर के साथ भिन्न-भिन्न संबंध जोड़कर की।मुख्यतः ये संबंध पांच रुपों में व्यक्त हुए: संख्या भाव, दास्य भाव,वात्सल्य भाव, माधुर्य भाव एवं शांत भाव। यहां हम भक्ति के इन विभिन्न रूपों का संक्षिप्त के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।
दास्य भाव
इसमें भक्त अपने को ईश्वर का दास और ईश्वर को अपना स्वामी मानता है और स्मरण,कीर्तन तथा लीला गायन दास रूप में करता है।गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति दास्य भाव की थी। अक्रूर,हनुमान,विभीषण की भक्ति को भी इसी श्रेणी में रखा गया है।
संख्य भाव
इसमें भक्त अपने को ईश्वर का सखा (मित्र) मानकर अपनी भावना व्यक्त करता है। सामान्यतः इन कवियों ने कृष्ण लीला का वर्णन किया है।सूरदास की भक्ति संख्य भाव की है। अर्जुन,उद्धव तथा गोप सखाओं की भक्ति भी इसी श्रेणी में आती है।
वात्सल्य भाव
वे भक्त और भक्त सखाओ कवि जिन्होंने कृष्ण के बाल रूप को और बाल-लीलाओं को अपनी भक्ति का आधार बनाया है,वहां भक्ति का वात्सल्य भाव व्यक्त हुआ है।सूरदास के काव्य में वात्सल्य रस की भक्ति व्यक्त हुई है नन्द-यशोदा की भक्ति इसी श्रेणी के अंतर्गत आती है।
माधुर्य भाव
माधुर्य भाव (इसे कांता भाव और दांपत्य भाव की भक्ति भी कहते हैं)माधुर्य भाव की भक्ति के दो रूप है।सगुण भक्त कवियों में यह कृष्ण और राम की प्रेम लीलाओं के गुण-गान के रूप में व्यक्त हुई है या फिर अपने को कृष्ण की प्रेमिका (गोपी रूप) मानकर भक्ति की गई है।इसी परंपरा में राधा कृष्ण की युगल मूर्ति की उपासना और कालांतर में राधा की भक्ति को प्रधानता प्राप्त हुई है।
निर्गुण भक्त कवियों में यह दाम्पत्य भाव के रूप में व्यक्त हुई है।कबीर दास अपने को “राम की बहुरिया” कहते हैं।मीरा के यहा भी गिरधर को अपना “पति” कहा गया है।जबकि सूफी कवि ईश्वर को स्त्री रूप में मानकर उसके प्रति दाम्पत्य भाव से ही भक्ति करते हैं।
शांत भाव
इस भक्ति में ज्ञान का मिश्रण है और भक्त ध्यान और ज्ञान द्वारा अपनी भक्ति व्यक्त करता है।सनक-सनातन-सनंदन सनत्कुमार की भक्ति इसी कोटी में आती है।