योग के तत्व या अंग
नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका Hindi-khabri.in में। दोस्तों आज के इस नए आर्टिकल में हम लोग जाने वाले हैं योग के तत्व या अंग के बारे में हम इस आर्टिकल में जानेंगे तो दोस्तों आइए हम बिना देर किए जानते हैं कि योग के तत्व क्या है-
योग के तत्व या अंग(Elements Of Yoga)
महर्षि पतंजलि ने ‘योगसूत्र’ में योग के आठ तत्वों का वर्णन किया है जो कि निम्न प्रकार से हैं-
यम
नियम
आसन
प्राणायाम
प्रत्याहार
धारणा
ध्यान
समाधि
यम(Yama)-
योग के पहले अंग को यम कहा जाता है। यह अंग व्यक्ति तथा समाज के नैतिकता के नियमों जैसे- अहिंसा(Non-violence),सत्य (Truthfulness),अस्तेय(Non-stealing),ब्रह्मचर्य(Brahmacharya),अपरिग्रह(Aparigraha),निर्धारित करता है।यम के अभ्यास द्वारा व्यक्ति ऐसी बातों से दूर रह सकता है जो उसे विवेक हीन तथा हिंसक बनाती है,इन यमों की संक्षिप्त व्याख्या निम्नलिखित है-
अहिंसा(Non-violence):-अहिंसा शब्द का शाब्दिक अर्थ है किसी भी प्रकार की हिंसा ना करना जिससे कि सामने वाला आहत हो जैसे कि- किसी को चोट नहीं पहुंचाना,दूसरों को बुरा नहीं बोलना तथा नकारात्मक भावना प्रदर्शित न करना। व्यक्ति में सभी जीवो के लिए स्नेह प्यार व आदर का भाव होना चाहिए।
सत्य (Truthfulness)-इस यम के अनुसार हमें विचार,शब्द व कार्य में सत्यवादी होना चाहिए। हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए तथा दूसरों से छल या धोखेबाजी नहीं करनी चाहिए।
अस्तेय(Non-stealing)-अस्तेय का अर्थ है -चोरी ना करना। दूसरों की वस्तु विचारों या धन आदि को अपने लाभ के लिए प्रयोग करने की प्रवृत्ति को चोरी कहा जाता है। हमें इससे दूर रहना चाहिए तथा ईश्वर ने हमें जो कुछ भी दिया है उसी वस्तु से हमें अपने आप में संतुष्ट रहना चाहिए।
ब्रह्मचर्य(Brahmacharya)-किसी भी प्रकार की यौन क्रिया अथवा यौन संबंधों में संलिप्त ना होना ब्रह्मचर्य कहलाता है।
अपरिग्रह (Aparigraha)-अपरिग्रह का अर्थ होता है-कम से कम आवश्यकताओं के साथ जीवन को व्यतीत करना। सरल शब्दों में कहा जाए तो भौतिक सुखों की इच्छा किए बगैर सादा जीवन बिताना ही अपरिग्रह कहलाता है।
नियम (Niyama)-
योग का यह अंग मनुष्य के लिए व्यवहारिक नियमों जैसे-शौच, संतोष,स्वाध्याय,तप व ईश्वर प्राणिधान का निर्धारण करता है। यह नियम मनुष्य के शुद्धिकरण के लिए है। इनका संक्षिप्त रूप से विवरण आपको निम्न प्रकार से नीचे दिया गया है-
शौच(Saucha)-शौच का अर्थ होता है-शारीरिक व मानसिक शुद्धता।हमें अपना शरीर बाहरी तथा आंतरिक रूप से साफ एवं स्वच्छ रखना चाहिए।योग में आंतरिक अंगों की शुद्धता के लिए 6 शुद्धि क्रियाएं होती हैं जैसे-नेति क्रिया,कपालभाति क्रिया,धौति क्रिया आदि।
सन्तोष(Santosh)-सन्तोष का अर्थ है -संतुष्टि अर्थात भगवान ने हमें जो कुछ भी दिया है उसी में हमें संतुष्ट रहना चाहिए ना की इच्छाओं के पीछे भागना चाहिए।
स्वाध्याय (Swadhyaya)-महान ग्रंथों,धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन कर स्वयं को शिक्षित करना स्वाध्याय है।
तप(Tapa)- लक्ष्य प्राप्त करने के दौरान आने वाली कठिनाइयों का सामना करते हुए निरंतर अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना तप कहलाता है,अर्थात हमें जीवन की सभी परिस्थितियों का संघर्ष सामना करना चाहिए।
ईश्वर प्राणिधान (Ishwar Pranidhan)-प्रत्येक कार्य एवं उपलब्धि भगवान को समर्पित करना ईश्वर प्राणिधान कहलाता है।इसमें व्यक्तिगत शरीर,बुद्धि, शक्ति व आधार जैसी सुविधाओं व संपन्नता को ईश्वर को समर्पित कर अपने दिमाग से घमंड तथा अहंकार को निकाल देता है।
आसन (Asanas)-
आसन का अर्थ- शरीर की स्थिति अर्थात आरामदायक स्थिति में बैठना भी होता है।आसन शरीर को चुस्त-दुरुस्त लचीला तथा शरीर में वसा के अनुचित जमाव को कम करके शरीर की सुन्दरता में वृद्धि के लिए किए जाते हैं।आसन विभिन्न प्रकार के होते हैं तथा इनका शरीर के विभिन्न अंगों पर प्रभाव भी अलग होता है।
प्राणायाम(Pranayama)-
प्राणायाम का अर्थ है- श्वसन प्रक्रिया(सांस लेना और छोड़ना) पर पूर्ण नियंत्रण।प्राणायाम के मूल रूप से 3 घटक होते हैं-पूरक,कुंम्भक,रेचक होते हैं। प्राणायाम चयापचय क्रियाओं में सहायता करता है तथा ह्रदय व फेफड़ों कि क्रियाओं में वृद्धि करता है यह जीवन को दीर्घायु भी बनाता है।
प्रत्याहार (Pratayahara)-
आत्म नियंत्रण अर्थात इंद्रियों पर नियंत्रण करना प्रत्याहार कहलाता है।इसकी सहायता से व्यक्ति अपने अवगुणों को दूर कर सद्गुणों को अपना सकता है।
धारणा(Dharana)-
धारणा का अर्थ है, किसी एक बिंदु अथवा वस्तु पर ध्यान को केंद्रित करना। इस स्थिति को पूर्ण एकाग्रता भी कहते हैं मस्तिष्क की एकाग्रता से ही ध्यान होता है। धारणा समाधि की ओर पहला कदम होता है वास्तव में धारणा एक मानसिक व्यायाम है,जो योगी को ध्यान व समाधि की ओर ले जाने के योग्य बनाती है।
ध्यान (Dhayan)-
ध्यान मस्तिष्क की पूर्ण स्थिरता की एक प्रक्रिया होता है। सरल शब्दों में कहें तो बिना किसी विषयांतर (Divergence) के एक समय के दौरान मस्तिष्क की पूर्ण एकाग्रता ही ध्यान कहलाती है।यह समाधि से पूर्व की स्थिति होती है।
समाधि (Samadhi)-
व्यक्ति की आत्मा का परमात्मा से मिलन ही समाधि कहलाता है। मस्तिष्क के सभी आवेगो पर नियंत्रण कर संचित रहते हुए भी कितना से आगे निकल जाना समाधि है। समाधि की स्थिति में व्यक्ति को ईश्वर की दैवीय सुख (Divine Pleasure) का अनुभव होना शुरू हो जाता है।